Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 01
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 430
________________ ४२२ जैनसाहित्यका इतिहास किया था कि दर्शनसारके कर्ता ही इसके कर्ता है । परन्तु प० परमानन्दजी शास्त्रीने अनेकान्त (वर्ष ७, अक ११-१२ ) में इसपर सन्देह किया है और सुलोयणा चरिऊके कर्ता तथा भावसग्रहके कर्ताको एक वतलाया है जो विमलगणिके शिष्य है' ( पृ० १७६) । इस तरह भावसग्रहके कर्ता देवसेन कौनसे है, इसमें विवाद है । 'सुलोचनाचरिउ" मे उसका रचनाकाल राक्षस सवत्सरकी श्रावण शुक्ला चतुर्दशी दिया है । ज्योतिपकी गणनाके अनुसार यह सवत्सर वि० स० ११३२ में तथा १३७२ मे पडता है ऐसा प० परमनन्दजीने लिखा है । इन दोनोंमॅसे किस सम्वत्में उक्त रचना हुई यह भी चिन्त्य है । उक्त विप्रतिपत्तिके निरसनके लिये भावसग्रहका अन्त परीक्षण करना उचित प्रतीत होता है । सम्भव है उससे प्रकृत विपयपर कुछ प्रकाश पड सके । यह हम बतला आये है कि भावसग्रहमे गुणस्थानोंका कथन है और उन्हें ग्रन्थका मुख्य आधार वनाया गया है । गुणस्थानोके वर्णनमें देवसेनने पचसग्रह प्राकृतका अनुसरण किया है और उससे अनेक गाथाएँ ज्योकी त्यो वैसे ही ली है । जैसे धवलामें और गोम्मटसारमें ली गई है । उन गाथाओको यहाँ दे देना उचित होगा मिच्छो सासण मिस्सो अविरय सम्मो य देस विरदो य । विरओ पमत्त इयरो अपुव्व अणियट्टि सुमो य ॥१०॥ उवसत खीणमोहो सजोइ केवलिजिणो अजोगी य । ए चउदस गुणठाणा कमेण सिद्धा य णायव्वा ॥ ११ ॥ X x X णो इंदिए विरओ णो जीवे थावरे तसे वापि । जो सद्दहइ जिणुत्त अविरह सम्मोत्ति णायव्वो ।। २६१॥ जो तसवहारविरओ णो विरओ तह य थावरबहाओ । एक्कसमयम्मि जीवो विरयाविरउत्ति जिणु कहई ॥ ३५१ ॥ X X X १ वत्तावत्तपमाए जो णिवसइ पमत्त सजदो होइ । सयलगुणसीलकलिओ महव्वई चित्तलायरणो ॥ ६०१॥ विकहा तहा कसाया इंदिय णिद्दा तह य पणओ य । चउ चउ पणमेगेगे हुँति पमाया हु पण्णरसा ॥ ६०२ ॥ X X X 'रक्खस सवत्सरे बुहदिवसए । सुक्कचउद्दिसि सावण मासए । चरिउ सुलोयणाहि णिप्पण्णउ, सहअत्य वण्णसवण्णओ - सुलो० च० ।

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