Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 01
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 425
________________ उत्तरकालीन कर्म-साहित्य ४१७ सग्रह ग्रन्थ है उनमें षट्खण्डागम, कषायपाहुड और उनकी धवला टीकाका सार ही सग्रहीत नही किया गया है, बल्कि उनसे तथा पञ्चसग्रहसे बहुत-सी गाथाएँ भी सगृहीत की गई है। किन्तु सगृहीत होने पर भी इसकी अपनी विशेपता है । उसी विशेपताके कारण गोम्मटसार और लब्धिसारकी रचनाके पश्चात् षट्खण्डागम और कसायपाहुडके साथ उनकी टीका धवला और जयधवलाको भी लोग भूल से गये और उत्तरकालमें इन सिद्धान्त ग्रन्थोको जो स्थान प्राप्त था, धीरे-धीरे वह नेमिचन्द्राचार्य गोम्मटसारको मिल गया । आचार्य नेमिचन्द्र रचित त्रिलोकसार नामक एक ग्रन्थ और भी है लोकानुयोगके प्रसंगमें उसके सम्बन्धमें लिखा जायेगा। देवसेनकृत भावसंग्रह ___भावसंग्रह नामक एक ग्रन्थ विमलसेन गणधरके शिष्य देवसेनने रचा था। इस ग्रन्थमें ७०० गाथाओंके द्वारा चौदह गुणस्थानोका स्वरूप बतलाया गया है। सैद्धान्तिक दृष्टिसे यह ग्रन्थ विशेप महत्वपूर्ण नही है क्योकि इसमें चौदह गुणस्थानोका कथन तो बहुत साधारण है। किन्तु उनका आलम्बन लेकर ग्रन्थकारने विविध विषयोका कथन विस्तारसे किया है । दो गाथाओके द्वारा चौदह गुणस्थानोके नाम बतलाकर ग्रन्थकारने मिथ्यात्व गुणस्थानका स्वरूप बतलाया है । तथा मिथ्यात्वके एकान्त, विनय, सशय, अज्ञान और विपरीत इन पांच भेदोको बतलाकर ब्राह्मण मतको विपरीत मिथ्यादष्टि बतलाते हुए लिखा है-ब्राह्मण ऐसा कहते है-'जलसे शुद्धि होती है, माससे पितरोकी तृप्ति होती है, पशु वलिदानसे स्वर्ग मिलता है और गो योनिके स्पर्शसे धर्म होता है ।' इन्ही चारोका खण्डन आगे किया गया है और स्वपक्षके समर्थनमें गीता आदि ब्राह्मण ग्रन्थोसे प्रमाण भी उद्धृत किये गये है । ___ एकान्त मिथ्यात्वके कथनमे क्षणिकवादी बौद्धोका खण्डन किया गया है और वैनयिक मिथ्यात्वके कथनमें यक्ष, नाग, दुर्गा, चण्डिका आदिको पूजनेका निषेध किया गया है। सशय मिथ्यात्वका कथन करते हुए श्वेताम्बर मतका खण्डन किया गया है । श्वेताम्बर सम्प्रदाय स्त्रीको निर्वाणकी प्राप्ति मानता है, केवलीको कवलाहारी मानता है और साधुओके वस्त्र-पात्र रखनेका पक्षपाती है। इन्हीकी आलोचना की गई है। श्वेताम्वर अपने साधु ओको स्थविरकल्पी बतलाते है । ग्रन्थकारने लिखा है यह स्थविरकल्प नहीं है यह तो स्पष्ट रूपसे गृहस्थ कल्प है। आगे उन्होने जिनकल्प और स्थविर कल्पका स्वरूप बतलाया है । (गा० ११९१३९) । और लिखा है कि परीपहसे पीडित और दुर्धर तपसे भीत जनोने गृहस्थकल्पको स्थविरकल्प बना दिया (गा० १३३)। २७

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