Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 01
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 416
________________ ४०८ · जेनसाहित्यका इतिहास है । प्रत्येक गुणस्थानमे प्रकृतियांका रात्त्व स्थान कितने प्रकार गंभव है, और उसके गाय जीव किंग आयुकी भोगता है और परवीन २ आयुको वाता है | यह सब कथन इस प्रकरण है । उगी प्रकरणके अन्तगं ग्रन्थकारने यह कहा है कि मन्त्रि गुरुके पाग श्रवण करके कनकनन्दिने मत्व स्थानका कथन किया । कननन्दिके 'विस्तरसत्त्व freगी' नामक ग्रन्थका परिचय पीछे करा आगे है । उसे नेमिचन्द्राचार्यने अपने इस प्रकरणमे प्राय. ज्योका त्यो अपना लिया है। आपकी प्रतिमं गाया ग० ८८ है और कर्मकाण्ड मुक्ति मस्करण प्रकरणको गाया गया ३५८ ने ३९७ तक ४० है । अत केवल ८ गायाएं छोड़ दी गई है और उनमें क्रमभेद भी किया गया है । जिन गाथा ३९७ में चकी तरह गिद्धान्त छ गण्डीको अपनी बुद्धि साधने की बात कही गई है वह गाया भी कनानन्दिके विस्तार रात्त्व निभगीकी है । अत नेमिचन्दकी तरह मनकनन्दि भी सिद्धान्त नक्रनर्ती थे । ४ विचूलिका अधिकार इस अधिकार तीन मूलिकाएँ है-नव प्रश्न चूलिका, पचभागद्दार चूलिका भर दमकरण लिया । जैसे जीवस्थानके विषम स्वलोके विवरणके लिये उसके अन्तमे चूलिका नामक एक भाग आता है येने ही कर्मकाण्ड प्रतिपादित पूर्वाविकारोके सम्बन्ध विशेष कथन करनेके लिये यह अधिकार आया है । पहली नौ प्रश्न नृलिकामं नौ प्रदनांका समाधान किया गया है। वे नो प्रश्न इस प्रकार है ? उदयव्युच्छित्तिके पहले बन्धकी व्युच्छित्ति किन प्रकृतियोकी होती है । २ उदय व्युच्छित्तिके पीछे बन्धको व्युच्छित्ति किन प्रकृतियोकी होती है । २ और उदय व्युच्छित्तिके साथ बन्धकी व्युच्छित्ति किन प्रकृतियांकी होती है । ४ जिनका अपना उदय होनेपर बन्ध हो ऐसी प्रकृतियां कौनसी है । ५ जिनका अन्य प्रकृतिका उदय होनेपर बन्ध हो ऐमी प्रकृतिया कोन सी है । ६ ओर जिनका अपना तथा अन्य प्रकृतिका उदय होनेपर बन्ध हो, वे प्रकृतियो कोनसी है । ७ जिनका निरन्तर वध होता है ऐसी प्रकृतियां कौनसी है । ८ जिनका सान्तरवन्ध होता है अर्थात् कभी वन्ध होता है और कभी नही होता, वे प्रकृतियाँ कोनसी है ९ और जिनका निरन्तर बन्ध भी होता है और सान्तरवन्ध भी होता है वे प्रकृतियाँ कोनसी है ? इन नौ प्रश्नोका उत्तर इस चूलिकामें दिया गया है । प्रा० प० स० के तीसरे अधिकारके अन्तमें नो प्रश्न चूलिका आई है तथा पट्खण्डागम के अन्तर्गत वन्वस्वामित्वविचय नामक तीसरे खण्डकी १ क० का०, गा० ४९६ । २ पट्ख० पु० ८, पृ० ७--- - १७ ।

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