Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 01
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 415
________________ उत्तरकालीन कर्म-साहित्य : ४०७ वन्धका कथन करते हुए प्रथम यह बतलाया है कि किन २ कर्म प्रकृतियोका वन्ध किस किस गुणस्थान तक होता है, आगे नहीं होता। यह कथन पञ्चसंग्रहम भी है । गुणस्थानोमें आठो कर्मोकी १२० वन्ध प्रकृतियोके बन्ध, अवन्ध और वन्ध व्युच्छित्तिका कथन करनेके वाद चौदह मार्गणाओम वही कथन किया गया है। यह कथन पचसग्रहमे नही है। इसे नेमिचन्द्राचार्यने पट्खण्डागमके वन्ध स्वामित्व विचय नामक तीसरे खण्डसे लिया है। प्रकृतिवन्धके पश्चात् स्थितिवन्धका कथन है । उसमे कर्मोकी मूल तथा उत्तरप्रकृतियोकी उत्कृप्ट और जघन्यस्थितिवन्धका तथा उनके बन्धकोका कथन किया है। पचसग्रहके चतुर्थ अधिकारमें जो स्थितिबन्धका कथन है उससे कर्मकाण्डके कथनमें कई विशेपताएं है । कर्मकाण्ड में एकेन्द्रियादि जीवोके होनेवाले स्थितिवन्धका भी कथन किया है, जो जीवस्थानकी जघन्यस्थिति चूलिकाको धवलाटीका का ऋणी है । अन्तमें कर्मोकी आवाधाका कथन है। तत्पश्चात् अनुभागवन्धका और फिर प्रदेशवन्धका कथन है। ये कयन पञ्चसग्रहके ऋणी है। किन्तु कुछ कथन उससे विशेष भी है। प्रदेशवन्धका कथन करते हुए प० स० में तो समयप्रवद्धका विभाग केवल मूलकर्मोमें ही बतलाया है किन्तु कर्मकाण्डमें उत्तरप्रकृतियोमें भी विभागका कथन किया है । तथा कर्मकाण्डमें प्रदेशवन्धके कारणभूत योगके भेदो और अवयवोका भी कथन है। यह कथन पंचसग्रहमें नही है, धवला और जयधवलामें है। इस वन्धप्रकरणमें पञ्चसग्रहकी कई गाथाएँ ज्योकी त्यो संगृहीत है । उदयप्रकरणमें कोक उदय और उदीरणका कथन गुणस्थान और मार्गणाओमें है अर्थात् प्रत्येक गुणस्थान और मार्गणामें प्रकृतियोके उदय, अनुदय और उदय व्युच्छित्तिका कथन है । सत्त्व प्रकरणमें गुणस्थान और मार्गणाओमें प्रकृतियोकी सत्ता, असत्ता और सत्त्व व्युच्छितिका कथन है। मार्गणामोमें वन्ध उदय और सत्त्व का कथन अन्यत्र नहीं मिलता। नेमिचन्द्राचार्यने प्राप्त उल्लेखोके आधारपर उसे स्वय फलित करके लिखा है। यह वात उदय और सत्त्वकी अन्तिम गाथाके द्वारा ग्रन्थकार नेमिचन्द्रने स्वय भी कही है। ३ सत्त्व स्थान भग पिछले प्रकरणमें कहे गये सत्त्व स्थानका भगोके साथ कथन इस प्रकरणमें १ गा० १४४-१४५ । २-पट्ख० पु०६, पृ० १८४ तथा १९५ । ३ 'कम्मेवाणाहारे पयडीणं उदयमेवमादेसे । कहियमिण बलमाहवचदच्चिय णेमिचदेण ॥३३२॥ कम्मेवाणाहारे पयडीण सत्तमेवमादेसे । कहियमिणं वलमाहवचंदच्चियणेमिचदेण ॥३५६॥-क०-का० ।।

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