Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 01
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 359
________________ अन्य कर्मसाहित्य : ३४७ रचनाकाल १. १० भागापरी ने अपनी नारा बना दर्पण नागा दोग में भगवती आराधना की गाथा २१२४ गी टीम 'तथा नोगा नगग्रह' गारो छ गाथाएँ उद्धृत की है । ये हा गाया पनगग्रह यो तीगरे अधिकार के अन्त में उगी क्रमने अरस्थित है और उनको नाम गरया ६०-६५ है । प० आगाधर जी विक्रमही तेरहवी शताब्दी में हुआ है । अत गह निश्चित है कि उरागे पहले पचग्रहको रचना हो चुकी थी। २ आचार्ग व मनगति ने पि० २० १०७२ में अपना सम्गृत पवनग्रह चार पूर्ण किया था। यह भारत प० ग० उरत प्राशन पनगग्रह को ही मामने रगकर रचा गया है । अत यह निग्नित है कि वि०म० १०७३गे पूर्व उमकी रचना हो चुकी थी। _३ पाचार्य वीरनेनने अपनी धवला टीका जो बहुत गी गाथाएं पचसंग्रहमें उद्धृत की है वे गाथाएं धवलामें जिग क्रममे उद्धृत है प्राय उमी क्रममे १० म०में पाई जाती है। अधिकाग गाथाएँ प० ग अन्तर्गत जीव समास नामक प्रकरण की है । यद्यपि वीरगनने 'पचमग्रह'का नामोल्लेस नही किया है मिन्तु एक स्थान पर जीवगमागका उल्लेप किया है । अत यह जीवसमाम पचसग्रहके अन्तर्गत जीव समाग ही होना चाहिए ।तथा कुछ गाथाएं प० स०के चौथे शतक नामक अधिकार की है: शतक नामक अधिकारमें एक शतक नामक प्रकरण सगृहीत है यह हम पीछे वतला आये है। ऐसी स्थितिमें यह सन्देह होना स्वाभाविक है कि गाथाए उम शतक प्रकरण से ही तो सीधे उद्धृत नही की गई। यद्यपि वे गाथाएँ उम शतकमे भी है किन्तु उनमें से एक गाथा ऐसी भी है जो उम शतव में नहीं है किन्तु प० स०के अन्तर्गत शतकमें है । वे तीन गाथाएं इस प्रकार है चदुपच्चडगो वधो पढमे उवरिमतिए तिपच्चइगो । मिस्सग विदिओ उवरिमदुग च सेसेगदेराम्हि । उवरिल्लपचए पुण दुपच्चमओ जोग पच्चो तिण्ण । सामण्ण पच्चया खलु अठ्ठण्ण होति कम्माण ।। पणवण्णा इरवण्णा तिदाल छादाल सत्ततीसा य । चदुवीसदु वावीसा सोलस एगूण जाव णव सत्त ।। -(पटख० पु० ८, पृ० २४) इनमेंसे शुरूको दो गाथाएँ शतक प्रकरणमें भी है । किन्तु प०स०में ये तीनो गाथाएं उसके चौथे अधिकारमें इसी क्रमसे वर्तमान है और उनकी क्रमसख्या ७८, ७९, ८० है । क्वचित् पाठ भेद है । यथा-'उवरिमतिए' के स्थानमें 'अण

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