Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 01
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 409
________________ उत्तरकालीन कर्म-साहित्य : ४०१ और किसी समय लेखकोकी कृपासे कर्मकाण्डसे छूट गई या उससे जुदा पड गई है । अत उन्हे कर्मकाण्डमें शामिल करके त्रुटिकी पूर्ति कर लेनी चाहिये। __उन्होने लिखा है कि कर्मप्रकृति प्रकरण और प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकार इन दोनोको एक कैसे समझ लिया गया है जिसके आधारपर एकमें जो गाथाएँ अधिक है उन्हें दूसरेमें भी शामिल करनेका प्रस्ताव रक्खा है । जबकि कर्मप्रकृतिमे प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकारसे ७५ गाथाएं अधिक ही नहीं, बल्कि उसकी ३५ गाथाएँ (न० ५२ से ८६ तक) कम भी है जिन्हे कर्मप्रकृतिमें शामिल करनेके लिये नही कहा गया । और इसी तरह २३ गाथाएँ कर्मकाण्डके द्वितीय अधिकारकी (गा० १२७ से १४५, १६३, १८०, १८१, १८४) तथा ग्यारह गाथाएं छठे अधिकारकी (८०० से ८१० तक) भी उसमें और अधिक पाई जाती है परन्तु प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकारमें उन्हें शामिल करनेका सुझाव नही रक्खा गया। दोनोके एक होनेकी दृष्टिसे यदि एककी कमीको दूसरे से पूरा किया जाये और इस तरह प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकारको उक्त ३५ गाथाओको कर्मप्रकृतिमे शामिल करानेके साथ कर्मप्रकृतिकी उक्त (२३ + ११) ३४ गाथाओको भी प्रकृति समुत्कीर्तनमें शामिल करानेके लिये कहा जाये तोxxx यह प्रस्ताव विल्कुल असगत होगा क्योंकि वे गाथाएँ प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकारके साथ किसी तरह ही सगत नहीं है। वास्तवमें ये गाथाएँ प्रकृति समुत्कीर्तनसे नही, किन्तु स्थितिवन्धादिकसे सम्बन्ध रखती है।' अत कर्मप्रकृति एक स्वतत्र ग्रन्थ ही ठहरता है जिसमें प्रकृति समुत्कीर्तनको ही नही, किन्तु प्रदेशवन्ध, स्थितिवन्ध और अनुभागवन्धके कथनोको भी अपनी रुचिके अनुसार सकलित किया गया है और उसका सकलन गोम्मटसारके निर्माणके बाद किसी समय हुआ जान पडता है। मुख्तारसाहवका यह निष्कर्ष उचित है। इसीसे उसको यहाँ उद्धृत कर दिया है। किन्तु इस तरह कर्मप्रकृतिके एक स्वतत्र ग्रन्थ मान लिये जानेपर भी कर्मकाण्डके प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकारके गा०२२ से ३३ तकमें जो असवद्धता और अपर्णता प्रतीत होनेका प्रश्न है वह तो खडा ही रहता है। उसके सम्वन्धमें भी हमें मुख्तारसाहवका सुझाव मान्य प्रतीत होता है। जिन दिनो कर्मकाण्डकी त्रुटिपूर्तिकी चर्चा चल रही थी तव स्व० प० लोक'नाथजी शास्त्रीने मूडविद्रीके सिद्धान्तमन्दिरके शास्त्र भण्डारमें, जहां धवलादि सिद्धान्त ग्रन्थोकी मूलप्रतियां मौजूद है, गोम्मटमारकी खोज की थी और अपने खोजके परिणामने मुख्तारमाहवको सूचित किया था। उन्होने सूचित किया था कि उक्त गाम्न भण्डारम गोम्मटसारके जीवकाण्डकी मूलप्रति त्रिलोकमार और लब्धिमार क्षपणामार सहित ताडपनोपर मौजूद है। पन मस्या जीवकाण्डकी

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