Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 01
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 368
________________ ३५६ जेनसाहित्य का इतिहास उनकी जघन्ग स्थिति गोटी-मोटी मागर बतलायी है। दिगम्बर परम्परामें भी यही बतलायी है। ___ कार्मिको गौर संसान्तिकोमें तो गतभेद है ही। कुछ बातोको लेकर कामिकोमे भी परसारमें मतभेद है । जगे क्षीणकपाग गुणस्थानमे निद्रा प्रचलाका उदय कोई मानता है कोई नही मानता। गर्गप्रकृतिकार और सप्ततिकार नही गानते। किन्तु प्राचीन कर्गस्तव मोर तदनुयायो पञ्चमंग्रहकार तथा दिगम्बराचार्य मानते है । किन्तु 'पञ्चसग्रहकारने अपने मप्ततिका प्रकरण मे सप्ततिकासंग्रह करते हुए दोनोंका निर्देश कर दिगा है। दूसरा मौलिक मतभेद अनन्तानुवन्धी कपायकी उपशमना और विगयोजनाको लेकर है कर्मप्रतिकारका मत कि अनन्तानुसन्धीकी विसयोजना ही होती है, उपशमना नहीं होती। किन्तु पप्ततिका ( गा०६१ ) और पञ्चसग्रहके अनुसार उपशमना होती है । तथापि २पञ्चमग्रहमे विसयोजना भी बतलायी है। पञ्नसग्रहवारने अपने सप्ततिका नामक प्रकरणमें गा० ९ में वैक्रियिक द्वयका उदय चौये गुणरयान तक ही बतलाया है। उसकी टीकामें 'मलयगिरिने लिया है कि वैक्रिय और वैक्रिय अगोपागका चौये गुणस्थानसे आगे उदयका निपेध आनार्यने नामस्तवके अभिप्रायानुमार किया है। स्वय तो वे देशविरत, प्रमत्त और अप्रमत्तमें उनका उदय मानते है। __उक्त नर्चाओगे प्राट होता है कि पञ्चराग्रहकार कर्मशास्नके बहुत विशिष्ट विद्वान थे और अपने समयके कर्मसिद्धान्त विपयक सभी प्रमुख ग्रन्योका उन्होने अवलोकन किया था। और उन सभीके मतोको उन्होने अपने ग्रन्थमें स्थान दिया, फिर भी कुछ विषयोमें उनका अपना भी विशिष्ट मत था। कर्ता इस पञ्चसंग्रहके कर्ता आचार्यका नाम चन्द्रपि महत्तर था। पञ्च सग्रहको अन्तिम गाथा तथा उसकी वृत्तिमें उन्होने अपना नाम 'चन्द्रपि' मात्र दिया है। १. 'खवगे सुतुम मि चउवन्धमि अवधगम्मि खीणम्मि। संत चउरदओ पंचण्हवि केर इच्छति । १४॥ -श्वे० ५० सं०, भाग, २२७ । २ श्वे.पं० स० उप०, गा०, ३४-३५ । ३. 'वैक्रियवेक्रियागोपागनिषेधस्तु अत्राचार्येण कर्मस्तवाभिप्रायेण कृतोभिवेदितन्यः, न स्वमतेन स्वय देशविरत प्रमत्ताप्रमत्तेपु तदुदयाभ्युपगमात्, रवकृतमूलटीकाया तथा भगभावना करणात् । प० स०, भा॰ २, पृ० २२७ । ४ सुयदेवि पसायाओ पगरणमेयं समासो भणिय । समयाओ चन्दरिसिणा समइ वि भवानुसारेण ॥१५६।।

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