Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 01
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 399
________________ उत्तरकालीन कर्म-साहित्य : ३८९ नाम आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीने पट्खण्डागमकी धवला टीकाका मथन करके गोम्मटसार नामक महान् ग्रन्थकी रचना की थी। इस ग्रन्थराजके दो भाग है-प्रथम भागका नाम जीवकाण्ड है और दूसरे भागका नाम कर्मकाण्ड है। ये दोनो नाम टीकाकारोके द्वारा दिये गये है। ग्रन्थकारने प्रथम भागकी पहली गाथामें 'जीवस्स परूवण वोच्छ' लिखकर जीवकी प्ररूपणा करनेकी प्रतिज्ञा की है और दूसरे भागकी पहली गाथामें कर्म प्रकृतियोका कथन करनेकी प्रतिज्ञा की है । अत जीव और कर्मविषयक कथनोके कारण प्रथम भागको 'जीवकाण्ड और दूसरे भागको कर्मकाण्ड सज्ञा दे दी गई है। किन्तु ग्रन्थकार ने इस ग्रन्थको बनाया दो ही भागोमें है क्योकि प्रथम भागके अन्तमें उस गोम्मट राजाकी जयकामना की गई है जिसके लिए गोम्मटसार रचा गया था। तथा दूसरे भागके अन्तमें चूँकि वह गोम्मटसार ग्रन्थका अन्तिम भाग है इसलिये विशेष रूपसे गोम्मटका गुणगान किया गया है । ___टीकाकारोने गोम्मटसारका एक नाम और भी दिया है पचसग्रह । किन्तु क्यों उसे यह नाम दिया, यह उन्होने नही बतलाया । सम्भवतया टीकाकारोने अमितगतिके पञ्चसग्रहको देखकर और उसके अनुरूप कथन इसमे देखकर इसे यह नाम दिया है । आचार्य नेमिचन्द्रने तो ग्रन्थके दूसरे भागके अन्तमें उसका नाम गोम्मट सग्रह सुत्त अथवा गोम्मट सुत्त दिया है। गोम्मटसार नाम भी टीकाओमें ही पाया जाता है। नामका कारण जीवकाण्डके अन्तकी गाथा में ग्रन्थकारने कहा है-'आर्य आर्यसेनके गुण समूहको धारण करनेवाले अजितसेनाचार्य जिसके गुरु है वह राजा गोम्मट जयवन्त हो।' कर्मकाण्डके अन्तमें कुछ गाथाओके द्वारा गोम्मट राजाका जयकार करते हुए ग्रन्थकारने कहा है 'गणधर देव आदि ऋद्धि प्राप्त मुनियोंके गुण जिसमें निवास करते है, ऐसे १ 'तद् गोम्मटसार प्रथमावयवभूत जीवकाण्ड विरचयन्'-मन्द प्र० टी०, पृ० ३। २ 'गोम्मटसारनामधेयपंचसग्रह शास्त्र प्रारम्भमाण'-मन्द प्रष्टी०, पृ० ३ । 'गोम्मटसार पञ्चसग्रह प्रपचमारचयन्'-जीव० टी०, पृ० २ । ३ 'गोम्मटसगह सुत्त'-कर्म का०, गा० ९६५ और ९६८ । ४ 'अज्जज्जसेनगुणगणसमूहसंधारिअजियसेण गुरू । भुवणगुरू जस्स गुरू सो राओ गोम्मटो जयदु ॥७३५॥-जी०का० ।

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