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जयधवला-टीका २५९
विसयोजनासे क्षपणामें यह भेद है कि जिन कर्मोकी क्षपणा होती है उनकी पुन उत्पत्ति नहीं होती। किन्तु अनन्तानुवन्धीकी विसयोजना करने के बाद सम्यग्दृष्टी यदि मिथ्यात्वको प्राप्त होता है तो प्रथम समयमें ही चारित्र मोहनीयके कर्मस्कन्ध अनन्तानुबन्धी रूपसे परिणत हो जाते है । इसीसे मिथ्यात्वमें मोहनीयकी २४ प्रकृतियोकी सत्ता न पायो जाकर अट्ठाईसकी सत्ता पायी जाती है । उपशम सम्यग्दृष्टीके अनन्तानुवन्धी चतुष्ककी विसयोजनाके होनेमें भी मतभेद है। उच्चारणाके अनुसार तो निषेध है।
इसपरसे यह शङ्का की गयी कि जिन आचार्योके कथनके अनुसार उपशम सम्यग्दृष्टीके अनन्तानुबन्धीकी विसयोजना होती है उनसे उक्त कथनका विरोध क्यो नही आता। इसके उत्तरमें वीरसेन स्वामीने कहा है कि यदि उपशम सम्यग्दृष्टीके अनन्तानुबन्धीको विसयोजनाका कथन करनेवाला वचन सूत्र वचन होता तो यह कथन सत्य होता क्योकि सूत्रके द्वारा व्याख्यान बाधित होता है परन्तु एक व्याख्यानके द्वारा दूसरा व्याख्यान वाधित नही होता इसलिए उपशम सम्यग्दृष्टीके अनन्तानुवन्धीकी विसयोजना नही होती, यह वचन अप्रमाण नही है । फिर भी यहाँ दोनो उपदेशोका कथन करना चाहिये। क्योकि दोनोमें अमुक कथन सूत्रानुसारी है इसके ज्ञान कराने का कोई साधन नहीं है।
उपशमसम्यक्त्वके कालकी अपेक्षा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसयोजनाका काल अधिक है अथवा वहाँ अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसयोजनाके कारणभूत परिणाम नहीं होते। इससे प्रतीत होता है कि उपशम सम्यग्दृष्टीके अनन्तानुवन्धी चतुष्ककी विसयोजना नहीं होती। फिर भी यहाँ उपशम सम्यग्दृष्टीके अनन्तानुवन्धी चतुष्ककी विसयोजना होती है यह पक्ष ही प्रधान रूपसे स्वीकार करना चाहिये क्योकि परम्परासे यह उपदेश चला आता है।
(क० पा० याग २, पृ० ४१७-१८) इससे वीरसेन स्वामीकी या जयधवलाकी प्रामाणिकतापर प्रकाश पडता है। २ स्थितिविभक्ति--
चूणिसूत्र में मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति पूर्ण सत्तर कोडाकोडी सागर कही है। इसकी व्याख्यामें जयधवलामें कहा है कि यह कथन एक समयप्रबद्धकी अपेक्षा है, नाना समयप्रवद्धकी अपेक्षा नहीं है यह स्थिति एक समय प्रबद्धकी है इसका प्रमाण यह है कि जो कार्मण वर्गणास्कन्ध अकर्मरूपसे स्थित है वे मिथ्यात्व आदि कारणोसे मिथ्यात्व कर्मरूपसे एक साथ परिणत होकर जब सम्पूर्ण जीव प्रदेशोसे सम्बद्ध हो जाते हैं तब उनकी एक समय अधिक