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अन्य कर्मसाहित्य - ३०५ दो भेद है-करणोपशामना और अकरणोपशामना । अकरणोपशामनाके दो नाम हैअकरणोपशामना और अनुदीर्णोपशामना। अकरणोपशामनाका कथन कर्म-प्रवाद में है। करणोपशामनाके भी दो भेद हैं—देशकरणोपशामना और सर्वकरणोपशामना । देशकरणोपशाम नाके दो नाम है देशकरणोपशामना और अप्रशस्तोपशामना । इसका कथन कर्म-प्रकृतिमें है ।'
इस सूत्रको व्याख्या करते हुए जयधवलाकारने लिखा है कि द्वितीय पूर्वक पञ्चम वस्तु अधिकारसे प्रतिबद्ध चतुर्थ प्राभृतका नाम कम्मपयडी है । उसमें इस देशकरणोपशामनाका विस्तारसे कथन है । शायद यह शका की जाये कि कर्मप्रकृति प्राभूत तो एक है उसका यहाँ 'कम्मपयडीसु' इस बहुवचन रूपसे निर्देश क्यो किया ?" तो उसका समाधान है कि 'यद्यपि कर्मप्रकृति-प्राभृत एक है किन्तु उसके अन्तर्गत कृति, वेदना, आदि अनेक अवान्तर अधिकार है, उनकी विवक्षासे बहुवचनका निर्देश करनेमें कोई विरोध नही है।'
जयधवलाकारके इस स्पष्ट निर्देशके सामने शास्त्रीजीके उक्त कथनको कैसे मान्य किया जा सकता है। फिर जिस देसकरणोपशामनाके लिए कर्मप्रकृतिका निर्देश यतिवृषभने किया है, प्रस्तुत कर्मप्रकृतिमें उसका केवल ६ (६६-७१) गाथा
ओमें उल्लेख मात्र है । उनसे पहली गाथामें तो देशकरणोपशामनाके भेद बतलाये हैं । दो में उसके स्वामियोका निर्देश है तथा एक गाथामें प्रकृति उपशामनाका, एकमें स्थिति-उपशामनाका और एकमें अनुभाग और प्रदेश-उपशामनाका उल्लेख है । अत अकरणोपशमनाके लिए कर्मप्रवाद नामक अष्टम पूर्वका निर्देश करनेवाले यतिवृषभ जैसे कसायपाहुडके वेत्ता विद्वान् देशकरणोपशामनाके लिए इस कर्मप्रकृतिका निर्देश नही कर सकते । प्रस्तुत कर्मप्रकृति अवश्य ही उनके उत्तरकालकी रचना होनी चाहिए । फिर जैसा प्रारम्भमें लिख आये है इस कर्मप्रकृतिके सिवाय एक बृहत्कर्म-प्रकृति भो थी। चूर्णिकारने शायद उसी कम्मपयडी महाग्रन्थके विच्छेदकी सूचना दी है । वह बृहत्कर्म-प्रकृति अथवा कम्मपयडी महाग्रथ सम्भवतया अग्रायणी पूर्वके चतुथ वस्तु अधिकारके अन्तर्गत कर्मप्रकृति-प्राभूत ही हो सकता है । जैसा कि जयधवलाकारका मत है । अत उसीका निर्देश यतिवृषभने अपने चूणिसूत्रोमें किया हो सकता है ।
१. 'कम्मपयडीओ णाम विदिय पुव्व पचम वत्थुपबद्धो चउत्थो पाहुड सण्णिदो अहियार
अत्थि । तत्थेसा देसकरणोवसामणा दट्ठन्वा, सवित्थरमेदिस्से तत्थ पवधेण परूविदत्तादो। कथमेत्थ एगस्स कम्मपयाडिपाहुडस्स 'कम्मपयडिसु' त्ति बहुवयणणिादसो त्ति णासकणिज्ज; एककस्सविदि तस्स कदि, वेदणा अवातराहियार भेदावेक्लाए बहुवयणणिदेसाविरोहादो।-ज० ५० प्रे० का, पृ० ६५६७-६८ ।