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६४ : जेनसाहित्यका इतिहास
शका - इसे निवद्ध मंगल तो तभी कहा जा सकता है जब वेदना आदि सण्ड और महाकर्मप्रकृतिप्राभृत एक हो, किन्तु गण्डग्रन्थको महाकर्मप्रकृतिप्राभृत कैरो माना जा सकता है ?
समाधान - महाकर्मप्रकृतिप्राभृत चौवीस अनुयोगद्वारोसे सर्वथा पृथक्भूत नही है । अर्थात् चौबीस अनुयोगद्वारोका ही नाम महाकर्मप्रकृतिप्राभृत है और उन्ही अनुयोगद्वारोसे वेदना आदि सण्ड निप्पन्न हुए है, अत उन्हें महाकर्मप्रकृतिप्राभूतपना प्राप्त है ।
शंका- अनुयोगद्वारोको कर्मप्रकृतिप्राभृत मानने पर बहुतसे कर्मप्रकृतिप्राभृत हो जायेंगे ?
समाधान -- इसमें कोई दोष नही है, कयचित् ऐसा इष्ट ही है ।
शका -- महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका वेदना-अनुयोगद्वार तो महापरिमाणवाला है - वडा विशाल है उसके उपसंहाररूप इस वेदनाखण्डको वेदनापना कैसे सभव है ?
समाधान - अवयवी अपने अवयवोंसे सर्वथा पृथक नही पाया जाता । शंका- भूतबलिका गोतम होना कैसे संभव है ?
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समाधान - उनके गोतम होनेसे क्या प्रयोजन है ?
शंका- क्योकि भूतबलिको गोतम माने विना यह मगल निवद्ध नही हो
सकता ।
समाधान --- इस खण्डग्रन्थके कर्ता भूतबलि नही है क्योकि दूसरेके द्वारा रचित ग्रन्थके अधिकारोके एकदेशरूप पूर्वोक्त शब्दार्थ सन्दर्भका कथन करनेवाला कर्ता नही हो सकता । ऐसा माननेसे अतिप्रसंग दोप आता है ।
उक्त चर्चासे दो बातें स्पष्ट होती है । एक तो वेदनाखण्डके आदिमें जो ४४ सूत्र मंगलात्मक है वे भूतवलिकृत नही है, बल्कि महाकर्मप्रकृतिप्राभृतकें मंगलसूत्र है और वही ज्यो-का-त्यो उठाकर भूतवलिने उन्हें वेदनाखण्डके आदि में रख दिया है। दूसरे, प्रकृत पट्खण्डागमके सूत्रोमें वर्णित अर्थ हो महाकर्म प्रकृतिप्राभृतका ऋणी नही है किन्तु शब्द भी उसीके है । भूतवलि तो उसके प्ररूपकमात्र है, कर्ता नही है ।
इन दोनो बातोसे प्रकृत षट्खण्डागमका द्वादशाग वाणीके एक अगरूप पूर्वोसे साक्षात् सम्बन्ध सिद्ध होता है ।
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आगे षट्खण्डोका उद्गम आग्रायणीय पूर्वके किस भेद - प्रभेदसे हुआ, इसके स्पष्टीकरणके लिए उनका यहाँ वृत्त दिया जाता है ।