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६८ · जैनराहित्यका इतिहाग भभिप्राय स्वरचितगे है और किये गये (MT) गे अभिप्राय है दुगो द्वाग रन गये गंगतको गन्गगे नादिन राति गार तेगा। गैदनामको गति अनुयोगद्वार:के आदिंगे तवलिने जो मगलापगे ४४ गुग ग्यापित किये है उन्हें नीग्गेनस्वागीने अनिवद्ध गगल गाता है, गयोगिक गुण गार्गप्रातिप्रागत र गगलगून है और नहींगे लार उन्हें ग्भापित गागा गया है । अत उक्त मगला पुणदन्तरचित होना रगष्ट है। न्तु उगग भने गिप्रतिपत्तियां है-ताम्बर गम्प्रदायमें भी यह गा गी स्पगे मान्य है। भगवतीगूगका प्रारम्भ गी मगलमूनसे हमा है। आवश्य करागो मध्यगे भी यह मन पाया जाता है।
इरागे सिवाय गारवेग प्रगिद्ध गिलालेगमा आरम्भ भी 'णमो अग्रताण णमो सिद्धाणं, इन पदोरो होता है।' मत गह मान गिवादग्रस्त है । बग्तु । गूग दोरो गन्यमें प्रतिपादित निगगका बारम्भ होता है___ 'एतो इगेसिं गोदगण्ह जीवगगागाण गग्गणदाए तत्य गाणि चोदम चैव ट्ठाणाणि णादन्वाणि भवति ॥२॥ _ 'इन नौदह जीवसगागो ( गुणस्थानी ) के अन्वेपणगे लिये ये चौदह मार्गणास्थान जानने योग्य है।
सून ४ में चौदह मार्गणाओके नाग गिनागे है-गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, नपाय, ज्ञान, संगम, दर्गन, लेगा, भव्यत्व, सम्यक्त्व, गजी, आहारक ।
सूत्र ५ में लिखा है कि-इन चौदह गुणरथानोके कथनके लिये ये गाठ अनुयोगद्वार जानने योग्य है।
सून ७ में उन गनुयोगदारोके नाम गिनाये है
'सतपस्वणा, दयपमाणाणुगमो, वेत्ताणुगमो, फोगणाणुगमो, कालाणुगमो, अतराणुगमो, गावाणुगमो, अप्पबहुगाणुगमो चेदि ॥७॥'
इन्ही आठ अनुयोगदारोमें जीवट्ठाण-पण्ड विभक्त है । सून ८ से प्रथग अनुयोगद्वार 'सतपस्वणा'का कथन प्रारम्भ होता है ।
'संतपख्वणाए दुविहो णिद्देशो ओघेण आदेसेण य ।।८॥'
'जीवसमासो ( गुणस्थानो )के सत्वकी प्ररूपणामे दो प्रकारका निर्देश हैओघ अर्थात् सामान्यसे और आदेस अर्थात् विशेषरो।'
सतका मतलब है सत्ता । और प्ररूपणाका मतलब है-निरूपण या प्रज्ञापन या कथन । गुणस्थानके लिये यहाँ जीवसमासशब्दका प्रयोग किया है । जीवसमास १ पट्ख०, पु० ९, पृ० १०३ । २ इसके विशेष विचारके लिये प० कैलाशचन्द्र शास्त्री लिसित 'नमस्कारमत्र' नामक
पुस्तक देखनी चाहिए। ३. 'सत्सत्त्वमित्यर्थ , "प्ररूपणा निरूपणा प्रज्ञापनेति यावत्'–पट ख०, पु० १, पृ० १५९।
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