Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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दिए वधामणी नाथ ल०॥ हय गय रथ सिणगारीयां, लेइ अंते उर साथ ल०॥ के०॥९॥ राय समीपें आवियां, वंदीया हरख विशेष ल०॥उचीत स्थान के बेसतां, प्रभुशुं नय ये उपदेश ल०॥०॥१०॥
दुहा-संसार में भमतां थकां, दुःकृत नर भव लद्ध; ॥ निद्रा विकथा दुरत्यजि, आप सवारथ सिद्ध ॥१॥ जन्म मरण गर्भ वासनां, दुःख छे अनंत अपार; सघला दुःख थी छटिएं, सेवे प्रवा सार ॥२॥ संयम मारग आदरि, शुद्ध छे मुक्ति पंथ; समता शुद्ध छे आतमा, तप निरमल निग्रंथ ॥ ३ ॥ ढाल ॥ राग धन्या श्री ॥ तप गच्छनंदन सुर तरु प्रगव्या, हिर वीजय गुरु राया रे ॥
ए देशी ॥ नृप सुणी धर्मनें सज थया सर्वे, जाणी अथीर स्वरूप रे; राज ठवे राय नीज पुत्र में, भावता भावना भूपरें ॥१॥ अमने कुण करत उपगार, सौभागी हितकार रे ॥ अमने ॥ आं० पांत्रिसें नृप साथे पखरिया, दीक्षा दीएं जगदीश रे; त्रिपदिनी सुणी प्रभु मुख थकी, गण धरादिक छत्तीस रे अमने०॥२॥ बासठ सहस्स संयमि साधु भालो, साधवी संख्या धारो रे; हजार बासठ पर चउ शत सही, वंदी करम निवारों रे॥ अमने०॥३॥मनःपर्यव चउ सहस्स हुआ, केवली च्यार|
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