Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org.
Acharya Shn Kailassagarsuri Gyanmandir
जाण रे म० ॥ ११ ॥ अनोपम सुर इशान कुर्णे रे, नित्य करतां गुण जाण रे म० ॥ चिहुं दीसे जीन चिहुं शोभतां रे, तेजें दीपति भाण रे म० ॥ १२ ॥ शांति सुधारस देशना रे, पिवे परषदा बार रे म० ॥ वयर भाव भय दुर टलें रे, सयल जंतु हीतकार रे म० ॥ १३ ॥ वाहन ठचे पहेले गढें रे, हरि करी महीषी छाग रे म० ॥ जलयरथलयशर पंखिया रे, गढ बीजे शिव मांग रे म० ॥ १४ ॥ देव मनुष्य त्रीजें गढें रे, सांभले जिनवर वाण रे म० ॥ आवि अद्धषीणमें सही रे, बार जोयण भवि नांण रे म० ॥ १५ ॥ चिहुं दीश वाव चिह्न निरभरी रे, चौ खुणें दो दो वाव रे म० ॥ पडि हार देव चउ तणां रे, जिन गुण नीत नीत गाय रे म० ॥ १६ ॥ विजया जीत अपरा जीया रे, तुंबरु कष हंग नाम रे म० ॥ हथीयार नीज करमें ग्रही रे, सेवा करे सारे काम रे म० ॥ १७ ॥ दुहा—- समवसरण शुमती करि, निरखे प्रभु मुख चंद; धन्य धन्य सुरनर नारीयो, नीत नीत नयना नंद ॥ १ ॥ उत्तम देश भरतनां, गाम नगर आगार; हथ्थीणा उर पूरें आवीया, नाठां दुरीत प्रचार ॥ २ ॥ ढाल || देश मनोहर मालवो ॥ ए देशी ॥ सोहं कर केवल पामियां, आवियां
For Pitvate And Personal Use Only
66