Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
View full book text
________________
Sha
r
ana Kendra
शांतिना-
ना.
पंच कर स्तवन
ॐॐॐ
॥
८
॥
वण यरत्रण दीसें ठवे रे, पडि रुव जिन हरि पूज रे; म०॥ अगर उखेवे गुण स्तवे रे, पामे भविप्रति ब्रूझ रे म०॥३॥ पूरवाभि मुखे तिष्ठतां रे, करतां प्रभु वखाण रे; म०॥ देवनर तिरि भवी बुझतां रे, जिन वाणि हेत आण रे म०॥४॥ जोयण एक प्रमाण छे रे, प्रभु वाणि विस्तार रे; म०॥ गुहिरी गाजति भाजति रे, करति भव निस्तार रे म०॥ ५॥ मुनि पुंठे वैमान देवी रे, अग्नी कुण धूर जाण रे म०॥ व्यंतर भवण जोसी सुरी रे, नैरुत कुण सयाण रे म०॥ ६ ॥ वाण व्यंतर जोसी वली रे, जाणो भवना धीश रेम०॥ वायु कुणे एह देवता रे, सेवा श्री जगदीश रे| म० ॥ ७ ॥वैमानीक नर राजीया रे, आतुर थइ करे सेव रे म० ॥ इशान कुणे उभा रही रे, जोतां जिन मुख देव रे म०॥ ८॥ एणिपरें बारे परषदा रे, निसुणे श्री जिन धर्म रे म०॥
अबाधा वयर होयें नहिं रे, समजे धर्मनु मर्म रे म०॥९॥ अण हुंते वाजां वाजते रे, सुरनर | कोडि विचार रे म०॥ गगन मंडलमें गड गडे रे, फरकति ध्वजा च्यार रे म० ॥ १० ॥ सहस | | जोयण उत्तंग भली रे, जिन शिर परें वीराज रे म०॥ मणिमय गढ बाहेर रचे रे, देव छंदो तस|
॥८॥
For
And Personal Use Only