Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07 Author(s): Nathuram Premi Publisher: Jain Granthratna Karyalay View full book textPage 9
________________ अङ्क ५-६] वर्ण और आति-विचार। २०१ वर्ण और जाति-विचार। लेते हैं । ऐसी दशामें वास्तविक उन्नति न कुछ होती है और न हो सकती है। (ले०-श्रीयुत बाबू सुरजमानुजी वकील।) जैन जाति इस समय केवल १३ लाख है । हिन्दुओंमें आर्य और म्लेच्छ इस प्रकार उसमें भी दिगम्बर, श्वेताम्बर और स्थानक 'मनुष्योंके दो भेद किये गये हैं। फिर वासी ये तीन टुकड़े हैं । इन तीनोंका आपसमें ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य और शूद्र इस प्रकार आ- कुछ वास्ता नहीं, यदि है भी तो सिर्फ इतना ही mको भी चार भेदोंमें विभाजित किया है कि एक दूसरेके साथ लड़ें और मुकदमेबाजी जिनको वर्ण कहते हैं । इन वर्गों के भी फिर करें। ऐसी दशामें भी जैन लोग वर्ण और अनेक भेद हैं, जिनको जाति कहते हैं। जैसे जातिको बिलकुल उसही तरह मान रहे गौड़, कन्नौजिया, सारस्वत, सरवरिया, सनाढ्य हैं जिस तरह अन्य हिंदू भाई; यहाँतक कि आदि जातियाँ ब्राह्मणोंकी; चौहान, राठौड़, एक जातिका जैन अपनी जातिके ऐसे मनुष्यसे हाड़ा, आदि जातियाँ क्षत्रियोंकी; अग्रवाल, जो जैन नहीं है विवाहसम्बन्ध भी कर सकता ओसवाल, खंडेलवाल, परवार आदि जातियाँ है और उसके हाथकी रोटी भी खा सकता है; वैश्योंकी और नाई, कहार, कुम्हार, धोबी आदि परन्तु दो जैन-जो एक ही वर्णके हैं परन्त एक जातियाँ शूद्रोंकी हैं। पर यहाँ ही भेदोंका अन्त जातिके नहीं हैं-न आपसमें रोटी खा सकते हैं नहीं हो जाता है, किन्तु इन जातियोंके और न विवाहसम्बन्ध कर सकते हैं । जैनोंकी भी भेद प्रभेद होकर हिन्दुओंके हजारों टकड़े छोटीसी जातिके इस प्रकार अनेक टुकड़े होनेसे हो गये हैं और संसारभरमें इस समय जो २० उसकी बहुतही शोचनीय दशा हो गई है। करोड़ हिन्दू गिने जाते हैं उन सबकी एक कौम हिन्दू लोग वर्ण और जातिका भेद केक्स रोटी न बनकर दस दस पाँच पाँच हजार मनुष्योंके और विवाह आदिक सांसारिक कार्योहीमें नहीं अलग अलग समूह बन गये हैं और इनमें कोई मानते है; वे इस भेदको धर्मकार्यों में भी चलाते कोई जातियाँ तो इतनी छोटी रह गई हैं कि उनकी हैं। जैसे कोई जाति वेद नहीं पढ़ सकती, मनुष्यगणना ४००, ५०० से भी अधिक नहीं कोई यज्ञ नहीं कर सकती, कोई जनेऊ नहीं है । हिन्दुओंकी ये सब जातियाँ एक दूसरेसे पहन सकती, इस प्रकारकी अनेक बातें उनके यहाँतक अलग हैं कि एक जाति दूसरी जातिके यहाँ प्रचलित हैं। हमारे जैन भाई भी इस विषहाथकी रोटी नहीं खा सकती और न एक यमें हिन्दुओंसे कम नहीं हैं। उन्होंने भी नीच जातिकी कन्या दूसरी जातिमें ब्याही जा सकती जाति और वर्णके सम्बंधमें अनेक प्रकारके कड़े है। इस ही कारण उन्नातके आन्दोलनके इस नियम बना रक्खे हैं और उन पर बहुत जोर समयमें यदि हिन्दओंने उन्नति करनी शरू दे रक्खा है। भी की है, तो इस तरह कि प्रत्येक जातिने हमारी समझमें वर्ण और जातिका प्रश्न बहुत ही महत्त्वका है । इस पर कौमकी लौकिक अपनी अपनी अलग अलग महासभा या कान्फरस और पारलौकिक सारी ही उन्नति और अवनति बनाई है, जिसमें वे अपना अलग अलग राग अवलम्बित है। इस कारण इसकी पूरी पूरी गाकर और अपनी अलग अलग ढफली बजाकर जाँच होने और इस पर खूब वादानुवाद होनेकी और शेख चिल्ली जैसी बातें बनाकर ही खुश हो अत्यन्त आवश्यकता है और यह तब ही हो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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