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तर संस्कृत मूलग्रंथोंके आधारपर हैं। कुछ अज्ञात कारणोंके वश जैनी पराक्रम और संख्या में घटने लगे, तब उनका गौरव भी नष्ट होने लगा। उपर्युक्त बातोंपर विचार. करनेसे यही अकाट्य अनुमान होता है कि प्राचीनकालमें जैनियोंकी भाषा संस्कृत थी। __ ७-इसके पश्चात् अब हम इस बातपर विचार करेंगे कि जैनियोंने दक्षिण भारतवर्षमें अपने ग्रहण किये हुए देशोंके साहित्यकी उन्नतिके अर्थ क्या किया । ऐसा प्रतीत होता है कि दक्षिण भारतवर्षकी चार मुख्य द्रविडभाषाओं अर्थात् तामिल, तैलंग, मलायालम
और कानडीमेंसे केवल प्रथम और अंतिमके साथ जैनियों का संबंध रहा। यह बात बडी आश्चर्यजनक है कि तेलंग तथा मलायालम भाषामें ऐसे किसी भी ग्रंथका अस्तित्व नहीं है जो किसी जैनकी लेखनीसे निकला हो। जबसे जैनी कर्नाट अथवा कनडी बोलनेवाले लोगोंके देशमें गए तबसे उन्होंने कनडी भाषामें हजारों ग्रंथ रच डाले हैं किन्तु इस छोटेसे लेखमें उनके विस्तारपूर्वक वर्णन करनेका अवकाश नहीं। तामिल भाषाके साहित्यमें जो उन्नति जनग्रंथकारोंने की है, उसके विषयमें ये बातें जानने योग्य हैं:__(क ) तिरुक्कुरलको, जो एक शिक्षाप्रद ग्रंथ है, और वास्तविकमें तामिल काव्य है, अमर तिरुवलवानयनरने रचा था । इनका यश इतना अधिक है कि कदाचित् हिन्दू इन्हें अपनों से ही बतायें किन्तु फिर भी यह निर्विवाद सिद्ध किया जा सकता है कि वे जैन थे। इस ग्रंथमें सदाचार, धन और प्रेमका वर्णन १३३ अध्यायोंमें है और प्रत्येक अध्यायमें १० दोहे हैं । यह ग्रंथ अपने स्वभावमें ऐसा सर्वदेशीय है कि इसको बड़े बड़े लेखकोंने, जो कि भिन्न भिन्न धर्मोके
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