Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 25
________________ "स्वशक्तया क्रियते यत्र संख्याभोगोपभोगयोः। भोगोपभोगसंख्याख्यं तत्तृतीयं गुणवतम् ॥ ३३०॥" (उमा० श्रा०) इस पद्यसे यह साफ प्रगट होता है कि ग्रंथकर्त्ताने, तत्त्वार्थसूत्रके विरुद्ध, भोगोपभोग परिमाण व्रतको, शिक्षाव्रतके स्थानमें तीसरा गुणव्रत वर्णन किया है। परन्तु इससे पहले खुद ग्रंथकर्त्ताने 'अनर्थदण्डविरत ' को ही तीसरा गुणव्रत वर्णन किया है । और वहां दिग्विरति देशविरति तथा अनर्थदंडविरति, ऐसे तीनों गुणव्रतोंका कथन किया है । गुणव्रतोंका कथन समाप्त करनेके बाद ग्रंथकार इससे पहले आद्यके दो शिक्षाव्रतों ( सामायिक–पोषधोधपवास ) का स्वरूप भी दे चुके हैं। अब यह तीसरे शिक्षाव्रतके स्वरूपकथनका नम्बर था जिसको आप 'गुणवत' लिख गये । कई आचार्योंने भोगोपभोगपरिमाण व्रतको गुणव्रतोंमें माना है। मालूम होता है कि यह पद्य किसी ऐसे ही ग्रंथसे लिया गया है जिसमें भोगोपभोगपरिमाण व्रतको तीसरा गुणव्रत वर्णन किया है और ग्रन्थकार इसमें शिक्षाव्रतका परिवर्तन करना भूल गये अथवा उन्हें इस बातका स्मरण नहीं रहा कि हम शिक्षाव्रतका वर्णन कर रहे हैं। योगशास्त्रमें भोगोपभोगपरिमाणवतको दूसरा गुणव्रत वर्णन किया है और उसका स्वरूप इस प्रकार लिखा है भोगोपभोगयोः संख्या शक्त्या यत्र विधीयते । भोगोपभोगमानं तद्वितीयीकं गुणवतम् ॥ ३-४ ॥ यह पद्य ऊपरके पद्यसे बहुत कुछ मिलता जुलता है । संभव है कि इसीपरसे ऊपरका पद्य बनाया गया हो और 'गुणवतम्' इस पदका परिवर्तन रह गया हो। इस ग्रंथके एक पद्यमें 'लोंच'का कारण । भी वर्णन किया गया है। वह पद्य इस प्रकार है: Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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