Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 24
________________ इस श्रावकाचारके श्लोक नं.३५८ में भी इन गृहस्थोचित व्रतोंके पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाबत ऐसे, वारह भेद वर्णन किये हैं। परन्तु इसी ग्रंथके दूसरे पद्यमें ऐसा लिखा है कि- "एवं व्रतं मया प्रोक्तं त्रयोदशविधायुतम्। निरतिचारकं पाल्यं तेऽतीचारास्तु सप्ततिः ॥ ४६१ ॥ अर्थात्-मैंने यह तेरह प्रकारका व्रतवर्णन किया है जिसको अती. चारोंसे रहित पालना चाहिये और वे ( व्रतोंके ) अतीचार संख्यामें ___ यहांपर व्रतोंकी यह १३ संख्या ऊपर उल्लेख किये हुए श्लोक नं. २५९ और ३२८ से तथा तत्त्वार्थसूत्रके कथनसे विरुद्ध पडती है। तत्त्वार्थसूत्रमें 'सल्लेखना'को ब्रतोसे अलग वर्णन किया है । इस लिये सल्लेखनाको शामिल करके यह तेरहकी संख्या पूरी नहीं की जा सकती। व्रतोंके अतीचार भी तत्त्वार्थसूत्रमें ६० ही वर्णन किये हैं। यदि सल्लेखनाको व्रतोंमें मानकर उसके पांच अतीचार भी शामिल कर लिये जावें तब भी ६५ ( १३४५) ही अतिचार होंगे । परन्तु यहांपर व्रतोंके अतीचारोंकी संख्या १० लिखी है, यह एक आश्चर्यकी बात है। सूत्रकार भगवान् उमास्वामिके वचन इस प्रकार परस्पर या पूर्वापर विरोधको लिये हुए नहीं हो सकते । इसी प्रकारका परस्परविरुद्ध कथन और भी कई स्थानोंपर पाया जाता है । एक स्थानपर शिक्षाव्रतोंका वर्णन करते हुए लिखा है: * "अणुव्रतानि पंच स्युस्त्रिप्रकारं गुणघ्रतम् । शिक्षाव्रतानि चत्वारि सागाराणां जिनागमे" ॥ ३५८ ॥ (उमा० श्रा.) Jain Education International For Personal & Private Use Only

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