Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 49
________________ १०९ बच्चे चलें चट बाहरको॥ दुलराने खिलाने पिलानेसे था - अवकाश उन्हें न घड़ी भरको। कुछ ध्यान ही था न कबूतरको कहीं काल चला रहा है शरको ॥ (७) दिन एक बड़ा ही मनोहर था, छवि छाई वसन्तकी थी वनमें । सब और प्रसन्नता देख पड़ी, जड़ चेतनके तनमें मनमें ॥ निकले थे कपोत-कपोती कहीं, ___ पड़े झुंडमें, घूमते काननमें । पहुँचा यहाँ घोसले पास शिकारी, शिकारकी, ताकसे निर्जनमें ॥ (८) उस निर्दयने उसी पेड़के पास . बिछा दिया जालको कौशलसे । बहीं देखके अन्नके दाने पड़े, चले बच्चे, अभिज्ञ न थे छलसे ।। नहीं जानते थे कि “यहीपर है, कहीं दुष्ट भिड़ापडा भूतलसे। बस फाँसके बाँसके बन्धनमें, कर देगा हलाल हमें बलसे" ॥ जब बच्चे फँसे उस जालमें जा, तब वे घबडा उठे बन्धनमें । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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