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रोंसे इस विषय में सम्मति लेनेकी भी आवश्यकता नहीं समझी गई। अस्तु, जब पदवियाँ दी जा चुकी हैं और उनका व्यवहार भी किया जाने लगा है, तब इस विषयको लेकर तर्क वितर्क करनेमें कुछ फल नहीं कि जिन लोगोंको पदवियाँ दी गई हैं वे वास्तव में उनके योग्य थे या नहीं और कमसे कम पदवी देनेवाले अपनी दी हुई पदवियोंका कुछ अर्थ समझते थे या नहीं; किन्तु यह हमें जरूर देख लेना चाहिए कि पदवी देना कहाँ तक अच्छा है, पानेवालेपर उसका क्या परिणाम होता है और हमारी पदवियोंकी कहाँ तक कदर करते हैं। यह सच है कि जो लोग धर्म और समाजकी सेवा कर रहे हैं उनका सत्कार करना, उनको गौरवकी दृष्टि से देखना हमारा कर्तव्य है । हमारे ऊपर उनके जो सैंकडों उपकारोंका बोझा है उसे हम और किसी तरह नहीं तो उनके प्रति अपनी शाब्दिक भक्ति प्रगट करके हलके ही होना चाहते हैं; परन्तु साथ ही हमें इस बातका खयाल अवश्य रखना चाहिए कि वर्तमान में हमें ऐसे नेताओंकी और काम करनेवालोंकी ज़रूरत है जो सच्चे कर्मवीर हैं । अर्थात् जो किसी भी प्रकारके फलकी आकांक्षा रक्खे बिना ही देश, समाज और धर्मकी सेवा अपना कर्तव्य समझकर करें। कहीं ऐसा न हो कि हमारी इस शाब्दिक भक्तिसे या पदवीदान से वे गुमराह हो जायें और अपने कर्तव्यको भूलकर हमारे दो चार शब्दोंके लोभसे मार्गच्युत हो जावें । उन्हें अपने कर्तव्यका अभिमान होना चाहिए न कि पदवीका । इसके सिवा जैसे पुरुषोंकी हमारे यहां आवश्यकता है हमारी इस पदवीवर्षासे उनका आदर्श गिर जाता है । सच पूछिए तो अभी तक जैन समाजने एक भी नेता कार्यकर्त्ता और सच्चा सेवक ऐसा उत्पन्न नहीं किया है जो हमारा आदर्श हो सके और जिसके प्रति भक्ति करनेके लिए हमें पदवियाँ
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