Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 61
________________ १२१ ६. हमारी संस्थायें और उनपर लोगों की सम्मतियाँ । ज्यों ही कोई पढ़ा लिखा या प्रसिद्ध पुरुष किसी संस्थामें पहुँचा और एकाध दिन रहा कि उसके आगे संस्थाकी व्हिजीटर्स बुक रख दी जाती है। उससे कहा जाता है कि इस संस्थाके विषय में आप अपनी राय लिखिए । एक तो जैन समाचारपत्रोंकी कृपा से उस निरीक्षकका पहलेहीसे कुछका कुछ विश्वास बना हुआ होता है । क्योंकि समाI चारपत्रोंके सम्पादक एक तो संस्थाकी भीतरी हालत से स्वयं ही अपरिचित होते हैं, दूसरे संस्था के संचालक लोग उसकी प्रसिद्धि के लिए प्रायः दबाव ही डाला करते हैं और तीसरे सम्पादक महाशय भी संस्थाको कुछ प्राप्ति हो जाया करे इस खयालको अधिक पसन्द करते हैं । फल यह होता है कि निरीक्षक महाशय अपने पूर्व विश्वासके अनुसार संस्थाकी प्रशंसा कर देना ही अपना कर्तव्य समझते हैं। वास्तवमें जब तक दश बीस दिन रहकर किसी संस्थाका बारीकी से अवलोकन न किया जाय तब तक कोई भी उसका भीतरी रहस्य नहीं जान सकता है । परन्तु यहाँ तो एक ही दिनमें निरीक्षक महाशय अपनी कलम से उसे सर्वोपरि बना देते हैं। इसके बाद संस्थाके संचालक उस रिमार्कको समाचारपत्रोंमें तथा वार्षिक रिपोर्ट में प्रकाशित कर देते हैं । लोग समझते हैं कि सचमुच ही यह संस्था अच्छा काम कर रही हैइसमें कोई दोष नहीं है । परन्तु इस पद्धति से समाजको और संस्था - को बहुत ही हानि पहुँचती है । समाज में उसके विषय में कुछका कुछ खयाल हो जाता है और संस्थाके संचालक इन प्रशंसासूचक सम्भतियों से गुमराह हो जाते हैं । इस विषय में लोगोंको सचेत हो जाना 1 चाहिए । ७. संस्थाओं में अंधाधुंध खर्च । हमारे एक पाठक लिखते हैं कि जैनियोंकी संस्थाओं में विशेष For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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