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बच्चे चलें चट बाहरको॥ दुलराने खिलाने पिलानेसे था - अवकाश उन्हें न घड़ी भरको। कुछ ध्यान ही था न कबूतरको कहीं काल चला रहा है शरको ॥
(७) दिन एक बड़ा ही मनोहर था,
छवि छाई वसन्तकी थी वनमें । सब और प्रसन्नता देख पड़ी,
जड़ चेतनके तनमें मनमें ॥ निकले थे कपोत-कपोती कहीं,
___ पड़े झुंडमें, घूमते काननमें । पहुँचा यहाँ घोसले पास शिकारी, शिकारकी, ताकसे निर्जनमें ॥
(८) उस निर्दयने उसी पेड़के पास
. बिछा दिया जालको कौशलसे । बहीं देखके अन्नके दाने पड़े,
चले बच्चे, अभिज्ञ न थे छलसे ।। नहीं जानते थे कि “यहीपर है,
कहीं दुष्ट भिड़ापडा भूतलसे। बस फाँसके बाँसके बन्धनमें,
कर देगा हलाल हमें बलसे" ॥
जब बच्चे फँसे उस जालमें जा,
तब वे घबडा उठे बन्धनमें ।
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