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वन-विहंगम।
बन बीच बसे थे, फँसे थे ममत्त्वमें,
एक कपोत कपोती कहीं। दिन-रात न एकको दूसरा छोड़ता,
ऐसे हिले-मिले दोनों वहीं ॥ बढ़ने लगा नित्य नयानया नेह,
नई नई कामना होती रहीं। कहनेका प्रयोजन है इतना,
उनके सुखकी रही सीमा नहीं ॥
रहता था कबूतर मुग्ध सदा,
अनुरागके रागमें मस्त हुआ। करती थी कपोती कभी यदि मान,
मनाता था पास जा व्यस्त हुआ । जब जो कुछ चाहा कबूतरीने,
उतना वह वैसे समस्त हुआ। इस भांति परस्पर पक्षियोंमें भी,
प्रतीतिसे प्रेम प्रशस्त हुआ।
सुविशाल वनोंमे उडे फिरते,
अवलोकते प्राकृत चित्र छटा । कहीं शस्यसे श्यामल खेतखड़े,
जिन्हें देख घटाकां भी मान घटा ॥ .
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