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कहीं कोसों उजाड़में झाड़पड़े, कहीं आडमें कोई पहाड़ सटा ।
कहीं कुंज, लताके वितान तने, घने फूलों का सौरभ था सिमटा ॥ (४)
झरने झरनेकी कहीं झनकार,
फुहारेका हार बिचित्र ही था । हरियाली निराली न माली लगा,
तब भी सब ढंग पवित्र ही था । ऋषियोंका तपोवन था, सुरभीका,
जहाँ पर सिंह भी मित्र ही था । बस जान लो, सात्त्विक सुन्दरतासुख-संयुत शान्तिका चित्र ही था ।
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(4)
कहीं झील किनारे बड़े बड़े ग्राम, गृहस्थ - निवास बने हुए थे । खपरैलोंमें कद्दू करैलोंकी बेलके
खूब तनाव तने हुए थे ॥ जल शीतल, अन्न, जहां पर पाकर पक्षी घरोंमें घने हुए थे । सब ओर स्वदेश- समाज - स्वजातिभलाई ठान ठने हुए थे ॥ ( ६ )
इस भांति निहारते लोककी लीलां प्रसन्न वे पक्षी फिरें घरको ।
उन्हें देखके दूरहीसे मुँह खोलते
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