Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 50
________________ ११० इतने में कबूतरी आई वहाँ; दशा देखके व्याकुल ही मनमेंकहने लगी, हाय, हुआ यह क्या ! सुत मेरे हलाल हुए वनमें । अब जालमें जाके मिलूं इनसे, सुख ही क्या रहा इस जीवनमें !! (१०) उस जालमें जाके बहेलिए के, ममतासे कवृतरी आप गिरी। इतनेमें कबूतर आया वहाँ; उस घोसलेमें थी विपत्ति निरी ।। लखते ही अँधेरा सा आगे हुआ, घटनाकी घटा वह घोर विरी । नयसोंसे अचानक बूंद गिरे, चेहरेपर शोककी स्याही फिरी ।। (११) तब दीन कपोत बढे दुखसे कहने लगा-हा अति कष्ट हुआ ! ‘निबलोहीको देव भी मारता है, __ये प्रवाद यहाँपर स्पष्ट हुआ । सब सूना किया, चली छोड़ प्रिया, सब ही विधि जीवन नष्ट हुआ । इस भांति अभागा अतृप्त ही में, सुख भोगके स्वर्गसे भ्रष्ट हुआ ।। कल कूजन केलि-कलोलमें लिप्त हो. बच्चे मुझे जो मुखी करते। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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