Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 52
________________ ११२ उसके सिर पै खुला खङ्ग सदा बँधा धागेमें धारसे झूलता है ॥ वह जाने बिना विधिकी गतिको अपनी ही गढन्तमें फूलता है । पर अन्तको ऐसे अचानक, अन्तकअस्त्र अवश्य ही हूलता है ॥ (१६) पर जो जन भोगके साथ ही योग के काम अकाम किया करता । परिवारसे प्यार भी पूरा करे - पर पीर, परन्तु सदा हरता ॥ निज भावको भाषाको भूले नहीं, कहीं विघ्न - व्यथाको नहीं डरता । कृतकृत्य हुआ हंसते हंसते वह सोच सकोच बिना मरता || (१७) प्रिय पाठक, आप तो विज्ञ ही हैं, फिर आपको क्या उपदेश करें ? शिरपै शर ताने बहेलिया काल खड़ा हुआ है, यह ध्यान धरें ॥ दशा अन्तको होनी कपोतकी ऐसी परन्तु न आप जरा भी डरें । निज धर्मके कर्म सदैव करें, कुछ चिन्ह यहां पर छोड़ मरें || Jain Education International रूपनारायण पाण्डेय | For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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