Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 22
________________ कंटनं नासिकावेधो मुष्कच्छेदोंघ्रिभेदनम् । कापनयनं नामनिलांछनमुदीरितम् ॥ ४११ ।। केकीकुक्कटमार्जारसारिकाशुकमंडलाः । पोष्यं तेन कृतप्राणिघाताः पारावता अपि ॥ ४०३ ॥ (उमास्वा• श्रा० ) भगवदुमास्वामिके तत्त्वार्थसूत्रपर 'गंधहस्ति' नामका महाभाष्य रचनेवाले और रत्नकरंड श्रावकाचारादि ग्रंथोंके प्रणेता विच्छिरोमणि स्वामी समन्तभद्राचार्यका अस्तित्व विक्रमकी दूसरी शताब्दीके लगभग माना जाता है; पुरुषार्थसिद्धयु पायादि ग्रंथों के रचयिता श्रीमदमृ. तचंद्रमूरिने विक्रमकी १० वीं शताब्दीमें अपने अस्तित्वसे इस पृथ्वीतलको सुशोभित किया है; यशस्तिलकके निमार्णकर्ता श्रीसोमदेवसूरि विक्रमकी ११ वीं शताब्दीमें विद्यमान् थे और उन्होंने वि. सं. १०१६ ( शक सं. ८८१ ) में यशस्तिलकको बनाकर समाप्त किया है; धर्मपरीक्षा तथा उपासकाचारादि ग्रंथोंके कर्ता श्रीअमितगत्याचार्य विक्रमकी ११ वीं शताब्दीमें हुए हैं; योगशास्त्रादि बहुतसे ग्रंथाके सम्पादन करनेवाले श्वेताम्बराचार्य श्रीहेमचंद्रभरि राजा कुमारपालके समयमें अर्थात् विक्रमकी १३ वीं शताब्दीम (सं. १२२९ तक) मौजूद थे; और पं. मेधावीका अस्तित्वसमय १६ वीं शत ब्दी है । आपने धर्मसंग्रह श्रावकाचारको विक्रम संवत् १५७१में बनाकर पूरा किया है। अब पाठकगण स्वयं समझ सकते हैं कि यह ग्रंथ ( उमास्वामिश्रावकाचार ), जिसमें बहुत पीछेसे होनेवाले इन उपर्युक्त विद्वानोंके ग्रंथोंसे पद्य लेकर उन्हें ज्योंका त्यों या परिवर्तित करके रक्खा है, कैसे सूत्रकार भगवदुमास्वामिका बनाया हुआ हो सकता है ? सूत्रकार भगवान् १ 'निलॊछन' का जब इससे पहले इस श्रावकाचार में कहीं नामनिर्देश नहीं किया गया, तब फिर यह लक्षण निर्देश कैसा ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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