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शिक्षासमस्या।
(२) जिस समय मन बढ़ता रहता है उस समय उसके चारों ओर एक बडा भारी अवकाश रहना चाहिए। यह अवकाश विश्वप्रकृतिके बीच विशाल भावसे विचित्र भावसे और सुन्दर भावसे विराजमान है। किसी तरह साढे नव और दश बजेके भीतर अन्न निगलकर शिक्षा देनेकी मृगशालामें पहुँचकर हाजिरी देनेसे बच्चोंकी प्रकृति किसी भी तरह सुस्थभावसे विकसित नहीं हो सकती। शिक्षा दिवालोंसे घेरकर, दरवाजोंसे रुद्धकर, दरवान बिठाकर, दण्ड या सजासे कण्टकितकर, और घण्टाद्वारा सचेत करके कैसी विलक्षण बना दी गई है ! हाय ! मानव जीवनके आरम्भमें यह क्या निरानन्दकी सृष्टिकी जाती है ! बच्चे बीजगणित न सीखकर और इतिहासकी तारीखें कण्ठ न करके माताके गर्भसे जन्म लेते हैं, इसके लिए क्या ये बेचारे अपराधी हैं ? मालूम होता है इसी अपराधके कारण इन हतभागियोंसे उनका आकाश वायु और उनका सारा आनन्द अवकाश छीनकर शिक्षा उनके लिए सब प्रकारसे शास्ति या दण्डरूप बना दी जाती है। परन्तु जरा सोचो तो सही कि बच्चे अशिक्षित अवस्थामें क्यों जन्म लेते हैं ? हमारी समझमें तो वे न-जाननेसे धीरे धीरे जाननेका आनन्द पावेंगे, इसीलिए अशिक्षित होते हैं। हम अपनी अस. मर्थता और बर्बरताके वश यदि ज्ञानशिक्षाको आनन्दजनक न बना सकें, तो न सही, पर चेष्टा करके, जान बूझकर अतिशय निष्ठुरतापूर्वक निरपराधी बच्चोंके विद्यालयोंको कारागार ( जेलखाने ) तो न बना डालें ! बच्चोंकी शिक्षाको विश्वप्रकृतिके उदार रमणीय अवकाशमेसे होकर उन्मषित करना ही विधाताका अभिप्राय था-इस अभि
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