Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 33
________________ ९३ अभ्यास पड़ जाने पर हमारी ऐसी दशा हो जाती है कि यदि कभी भूमितल पर बैठने के लिए हमें लाचार होना पड़ता है तो न तो हमें आराम मिलता है और न सुबिधा ही मालूम पड़ती है । विचार करके देखा जाय तो यह एक बड़ी भारी हानि है । हमारा देश शीतप्रधान देश नहीं हैं, हमारा पहनाव ओढाव ऐसा नहीं है कि हम नीचे न बैठ सकें, तब परदेशों के समान अभ्यास डालके हम असबाबकी बहुलतासे अपना कष्ट क्यों बढ़ावें ? हम जितना ही अनावश्यकको अत्यावश्यक बनावेंगे उतना ही हमारी शक्तिका अपव्यय होगा । इसके सिवा धनी यूरोपके समान हमारी पूँजी नहीं है; उसके लिए जो बिलकुल सहज है हमारे लिए वहीं भार रूप है । हम ज्यों ही किसी अच्छे कार्यका प्रारंभ करते हैं और उसके लिए आवश्यक इमारत, असबाब, फरनीचर आदिका हिसाब लगाते हैं त्यों ही हमारी आँखोंके आगे अँधेरा छा जाता है। क्योंकि इस हिसाब में अनावश्यकताका उपद्रव रुपये में बारह आने होता है। हममें से कोई साहस करके नहीं कह सकता कि हम मिट्टी के साधे घरमें काम आरंभ करेंगे और धरती में आसन बिछाकर सभा करेंगे । यदि हम यह बात जोर से कह सकें और कर सकें तो हमारा 1 आधे से अधिक वजन उतर जाय और काममें कुछ अधिक तारतम्य भी न हो । परन्तु जिस देशमें शक्तिकी सीमा नहीं है, जिस देश में धन कौने कौने में भरकर उछला पड़ता है, उस धनी यूरोपका आदर्श अपने सब कामों में बनाये विना हमारी लज्जा दूर नहीं होती -- हमारी कल्पना तृप्त नहीं होती । इससे हमारी क्षुद्र शक्तिका बहुत बड़ा भाग आयोजनों में तैयारियों में ही निःशेष हो जाता है, असली चीजको हम खुराक ही नहीं जुटा पाते। हम जितने दिन पट्टियों पर खड़िया पोतकर हाथ घसीटते रहे, तब तक तो पाठशालायें स्थापन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86