Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 41
________________ १०१ देखनेमें ही जिन्हें सुख मालूम होता है, अपने स्वभावके अनुसार चलने में जिन्हें लजा, संकोच, अभिमान आदि कुछ भी नहीं होता, वे जान बूझकर बिगाड़े जाते हैं, चिरकालके लिए अकर्मण्य बना दिये जाते हैं, यह बड़े ही दुःखका विषय है। भगवान् , ऐसे पितामाता ओंके हाथसे इन निरपराध बच्चोंकी रक्षा करो, इनपर दया करो । ___ हम जानते हैं कि बहुतसे घरोंमें बालक बालिका साहब बनाये 'जा रहे हैं । वे आयाओं या दाइयोंके हाथोंसे मनुष्य बनते हैं, विकृत बेढंगी हिन्दुस्थानी सीखते हैं, अपनी भातृभाषा हिन्दी भूल जाते हैं और भारतवासियोंके बच्चोंके लिए अपने समाजसे जिन सैंकड़ों हजारों भावोंके द्वारा निरन्तर ही विचित्र रसोंका आकर्षण करके पुष्ट होना स्वाभाविक था, उन सब स्वजातीय नाडियों के सम्बन्धसे वे जुदा हो जाते हैं और इधर अँगरेजी समाजके साथ भी उनका सम्बन्ध नहीं रहता । अर्थात् वे अरण्यसे उखाड़े जा कर विलायती टीनके टबोंमे बड़े होते हैं। हमने अपने कानोसे सुना है इस श्रेणीका एक लडका दरसे अपने कई देशीय भावापन्न रिश्तेदारोंको देखकर अपनी मासे बोला था--" Jammat, tmamima, look, lot of Babus Fare coming" एक भारतवासी लडकेकी इससे अधिक दुर्गति और क्या हो सकती हैं ? बड़े होनेपर स्वाधीन रुचि और प्रवृत्तिके वश जो साहबी चाल चलना चाहें वे भले ही चलें, किन्तु उनके बचपनमें जो सब मावाप बहुत अपव्यय और बहुतसी अपचेष्टासे सन्तानोंको सारे समाजसे बाहर करके स्वदेशके लिये अयोग्य और विदेशके लिए अग्राह्य बना डालते हैं, सन्तानोंको कुछ समयके लिए केवल अपने उपार्जनके बिलकुल अनिश्चित आश्रयके भीतर लपेट रखकर भविप्यतकी दुर्गतिके लिए जान बुझकर तैयार करते हैं, उन सब अभि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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