Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 43
________________ १०३ न समझते हों तो यह बात हमारे मनमें जरूर उठेगी कि बालकोंको शिक्षा के समय ऐसी जगह रखना हमारा कर्तव्य है कि जहाँ वे स्वभाबके नियमानुसार विश्वप्रकृति के साथ घनिष्ट सम्बन्ध रखकर ब्रह्मचर्य पालनपूर्वक गुरुओं के सहवासमें ज्ञान प्राप्त करके मनुष्य बन सकें । भ्रूणको गर्भके भीतर और बीजको मिट्टी के भीतर अपने उपयुक्त खाद्यसे परिवृत होकर गुप्त रहना पड़ता है । उस समय रात दिन उन दोनोंका एक मात्र काम यही रहता है कि खाद्यको खींचकर आपको आकाशके लिए और प्रकाशके लिए तैयार करते रहना । उस समय वे आहरण नहीं करते, चारों ओर से शोषण करते हैं । प्रकृति उन्हें अनुकूल अन्तरालके भीतर आहार देकर लपेट रखती है - बाहर के अनेक आघात और अपघात उनपर चोट नहीं पहुँचा सकते और नाना आकर्षणों में उनकी शक्ति विभक्त नहीं हो पड़ती। बालकों का शिक्षा समय भी उनके लिए इसी प्रकारकी मानसिक भ्रूणअवस्था हैं | इस समय वे ज्ञानके एक सजीव वेष्टन के बीच रात दिन मनकी खुराक के भीतर ही बात करके बाहर की सारी विभ्रान्तियोंसे दूर गुप्त रूपसे अपना समय व्यतीत करते हैं, और यही होना भी चाहिए - यह स्वाभाविक विधान इस समय चारों ओर की सभी बातें उनके अनुकूल होना चाहिए, जिससे उनके मनका सबसे आवश्यक कार्य होता रहे अर्थात् वे जानकर और न जानकर खाद्यशोषण करते रहें, शक्तिसंचय करते रहें और आपको परिपुष्ट करते रहें । संसार कार्यक्षेत्र हैं और नाना प्रवृत्तियोंकी लीलाभूमि है - उसमें ऐसी अनुकूल अवस्थाका मिलना बहुत ही कठिन है जिससे बालक शिक्षाकालमें शक्तिलाभ और परिपूर्ण जीवनकी मूल पूँजी संग्रह कर सकें । शिक्षा समाप्त होनेपर गृहस्थ होनेकी वास्तविक क्षमता उनमें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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