Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 35
________________ घृणाकी दृष्टिसे देखेंगे और प्राचीन भारतवर्षकी साधनाका माहात्म्य यथार्थरूपसे अनुभव न कर सकेंगे। यहाँ शंका उपस्थित होगी कि यदि तुम बाहरी तडकभडक चाकचिक्यका आदर नहीं करना चाहते तो फिर तुम्हें भीतरी वस्तुको विशेष भावसे मूल्यवान् बनाना होगा-सो क्या उस मूल्यके देनेकी शक्ति तुममें है ? अर्थात् क्या तुम उस बहुमूल्य आदर्श शिक्षाकी व्यवस्था कर सकते हो ? गुरुगृह स्थापित करते ही पहले गुरुओंकी आवश्यकता होगी। परन्तु इसमें यह बड़ी भारी कठिनाई है कि शिक्षक या मास्टर तो अखबारोंमें नोटिस दे देनेसे ही मिल जाते हैं पर गुरु तो फरमायश देनेसे भी नहीं पाये जा सकते। . इसका समाधान यह है-यह सच है कि हमारी जो कुछ सङ्गति है-पूंजी है उसकी अपेक्षा अधिकका दावा हम नहीं कर सकते। अत्यन्त आवश्यकता होनेपर भी सहसा अपनी पाठशालाओंमें गुरु महाशयोंके आसनपर याज्ञवल्क्य ऋषिको ला बिठाना हमारे हाथकी बात नहीं है। किन्तु यह बात भी विवेचना करके देखनी होगी कि हमारी जो सङ्गति या पूँजी है अवस्थादोषसे यदि हम उसका पूरा दावा न करेंगे तो अपना सारा मूलधन भी न बचा सकेंगे। इस तरहकी घटनायें अकसर घटा करती हैं। डांकके टिकिट लिफाफेपर चिपकानेके लिए ही यदि हम पानीके बडेका व्यवहार करें तो उस घडेका अधिकांश पानी अनावश्यक होगा; पर यदि हम स्नान करें तो उस. घडेका जल सबका सब खाली किया जा सकता है;अर्थात् एक ही घडेकी उपयोगिता व्यवहार करनेके ढंगोंसे कम बढ़ हो जाती है । ठीक इसी तरह हम जिन्हें स्कूलके शिक्षक बनाते हैं ! उनका हम इस ढंगसे व्यवहार करते हैं कि उनके हृदय मनोंका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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