Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 34
________________ ९४ करने का हमारा विचार ही नहीं था, अब बाजारोंमें स्लेट पेंसिलोंका प्रादुर्भाव हो गया है परन्तु पाठशाला स्थापित करना मुश्किल हो गया है । सब ही विषयों में यह बात देखी जाती है । पहले आयोजन कम थे, सामाजिकता अधिक थी; अब आयोजन बढ़ चले हैं, और सामाजिकतामें घाटा आ रहा है । हमारे देश में एक दिन था, जब हम असबाब आडम्बरको ऐश्वर्य कहते थे किन्तु सभ्यता नहीं कहते थे; कारण उस समय देशमें जो सभ्यताके भाण्डारी थे उनके भाण्डारमें असबाकी अधिकता नहीं थी। वे दारिद्यको कल्याणमय बना करके सारे देशको सुस्थ स्निग्ध रखते थे । कमसे कम शिक्षा के दिनों में यदि हम इस आदर्श से मनुष्य हो सकें - तो और चाहे कुछ न हो हम अपने हाथ में कितनी ही क्षमता या सामर्थ्य पा सकेंगे - मिट्टी में बैठ सकने की क्षमता, मोटा पहननेकी मोटा खानेकी क्षमता, यथासंभव थोडे आयोजनमें यथासंभव अधिक काम चलाने की क्षमता – ये सब मामूली क्षमता नहीं हैं। और ये साधनाकी - अभ्यासकी अपेक्षा रखती हैं। मुगमता, सरलता, सहजता ही यथार्थ सभ्यता है - इसके विरुद्ध आयोजनोंकी जटिलता एक प्रकारकी वर्बरता है। वास्तव में वह पसीने से तरबतर अक्षमताका स्तूपाकार जंजाल है! इस प्रकारकी शिक्षा विद्यालयों में शिशुकालसे ही मिलना चाहिए और सो भी निष्फल उपदेशोंद्वारा नहीं, प्रत्यक्ष दृष्टान्तों द्वारा कि थोडी बहुत जड वस्तुओं के अभाव से मनुष्यत्वका सन्मान नष्ट नहीं होता वरन् बहुधा स्थलों में स्वाभाविक दीप्ति उज्ज्वल हो उठता है। हमें इस बिलकुल सीधीसाड़ी बातको सब तरह साक्षात् भावसे बालकों के सामने स्वाभाविक कर देना होगा । यदि यह शिक्षा न मिलेगी तो हमारे बालक केवल अपने हाथोंपा चोंका, और घरकी मिट्टीका ही अनादर न करेंगे किन्तु अपने पिता पितामहों को For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86