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किन्तु उस असावधानीपर अभिमान भी करते है और हममे यह आगा करते हैं कि हम भी उनकी प्रशसा करे । कौन कहता है कि हमारा सभ्य और सत्यप्रिय बनना विद्वान् बननेसे भी ज्यादह जम्बरी नहीं है ? कौन नहीं जानता कि केवल विद्याकी पूर्णतामे मंसारिक कार्य नहीं चल सकते; परन्तु दुहाई परमात्माकी, ऐसा विचार तो हममें पैदा न करो जिससे हम विद्याको ही तुछ दृष्टिले देरान टगे और जो व्यक्ति हमसे अधिक विद्वान् और बुद्धिमान् है उनको स्म अपनेसे तुच्छ समझने लगें। इस प्रकारकी मूर्खतासे क्या लाभ है? -सभ्यता, सुशीलता आदि उत्तम गुण एक विद्वान् मनुष्यमें भी सी
आसानीसे पैदा हो सकते हैं जैसे उन मनुष्योंमें जिनको ये महाशय पसंद करते हैं बल्कि असली सभ्यता और सच्चरित्रता उच्च शिक्षाके बिना -एक तरहसे असभव है। हम यह सुनकर आश्चर्य करेंगे: परन्तु । विचार कीजिए कि चरित्रसम्बन्धी गुणोंको कौन समझ सकता है। क्या वह व्यक्ति जिसका मस्तक विद्या और तत्त्वोंसे शून्य है ? भूत अवस्थाकी घटनाओंसे कौन पुरुप शिक्षा ग्रहण कर सकता है? इतिहास और सम्पत्ति-शास्त्रके स्वाध्याय करनेवालोंने सोच विचारके बाद जो फल निश्चय किया है उसको जीवनकी दैनिक घटनाओंपर कौन घटित कर सकता है ? क्या वे जो इन विद्याओंसे शून्य है या वे जो इनसे अपरिचित हैं ? सबसे आसान और साफ बात यह है कि जब तक मनुष्यका मस्तक उच्चावस्थापर न पहुँच जाय, तब तक यह उसकी समझमें नहीं आ सकता। यह बात जानते हुए भी विचार-शक्तिकी असावधानी करना मानो अपनी शिक्षाकी जडको काट डालना है। विशेष कर समाजकी ऐसी अवस्थामें जिसमें हम रहते हैं और जहाँ विद्योनति, बुद्धि वृद्धि अभी प्रारम्भिक दशामें ही हैं, इस प्रकारकी शिक्षासे लाभ कम और हानि अधिक होगी। यह