Book Title: Jain Hitechhu 1916 09 to 12
Author(s): Vadilal Motilal Shah
Publisher: Vadilal Motilal Shah

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Page 10
________________ </४२ नास्तिजैन व अजैन प्रत्येक कोमके लिडरोंको यह सारे ही प्र. नका अभ्यास करके अपनी २ कोममें ऐक्यबल कायम करने की कोशीश करनेकी मेरी नम्र प्रार्थना है। अखबारनवेशोंको प्रार्थना है कि इस अंक भिन्न भिन्न प्रश्नोंकी चर्चा अपनी स्वतंत्र बुद्धिसे करें और प्रजागणका लक्ष ऐक्यभावकी ओर खिंचते रहें। . हाईस्कूल और कालेजमें पढते हुए विद्यार्थी गणको र्थना है कि ऐक्य भावको नष्ट करानेवाला उपदेश किसी भी अगुएं या धर्मगुरुसे सुननेका प्रसंग मिले तो इनके हृदय को जला दे ऐसा कडा परन्तु युक्तिपूर्ण जवाब सुनावें. स्वधमंद्रोहीयोंकी वाहियात बातें चुपकीसे सुनना मानो बडा भारी नैतिक अपराध है। ' साधुओंको चाहिए कि क्या कहें ?-वे खुद दिलमें तो सब कुछ समझते हैं, परन्तु हृदय उनका नाताकाद हो गया है। मौके पर सत्यकथनकी हिमत करना इनसे नहीं बन सकता है। और बन सके भी कैसे?-आफत नहीं वहां तक हिमत नहीं; और साधुओंको आफत कैसी ? इनकी सारी आवश्यकताएं पुरनेवाले और रक्षण करने वाले बहुतसे लोग तैयार हैं ! * ध्य छन्नध्य छ-लेमे छ 'म', स्वटेशપ્રેમની આગ, સમાજપ્રેમની આગ, એક પ્રેમની આગ, સેવાપ્રેમની - આગ, ઉંચી જાતનાં દીવ્ય યુધ્ધોની આગ, સત્યકથનની भितनी साग, '५ ' भने ' शस्त' मापनारी ' माग ' ना એન્જન રૂપ સાચા લેકનાયકેમાં રાખવી જોઇતી શ્રદ્ધા રૂપી

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