Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 16
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/१४ पर तपस्वी सुदर्शन कार्यात्सर्ग में लीन थे। बस, दासी को अच्छा सुयोग मिल गया, वह फूली नहीं समाई। उसने उसी समय तपस्वी सुदर्शन को उठाकर रानी के महल में पहुंचा दिया। जब रानी ने सुदर्शन को अपने कक्ष में देखा तो वह अत्यन्त प्रसन्न हई। उसने मन में विचारा कि मेरी मनोकामना पूर्ण हुई, उसने कामवासना से पीड़ित होकर सेठ सुदर्शन से कहा कि हे प्रिय ! मेरी मनोकमना पूर्ण करो ! अपने प्रेमालिंगन से मुझे सुखी करो। देखो, तुम्हारे लिये मुझे कितनी तकलीफ झेलनी पड़ी है, अब आनन्द से सुख क्रीड़ा करके जीवन सार्थक बनाओ। परन्तु सेठ सुदर्शन तो टस से मस भी न हुए। ____ “अहो ! देखो तो कामी जीव की दशा, वह अपने पद-प्रतिष्ठा, मानमर्यादा सबकुछ भूलकर दूसरे की इच्छा के बिना भी कुशील सेवन करने को तैयार हो जाता है। अरे, धिक्कार है ऐसे कामभाव को, जो मनुष्य पर्याय में भी पशुता जैसा जीवन कर देता है। हे आत्मन् ! तू ऐसे भावों से सदा बच कर रहना, अन्यथा ऐसे भावों का फल इस जन्म में तो कलंक रूप होता ही है, आगामी जन्मों में भी नरकादि के असहनीय दुःख भोगने पड़ते हैं।" संसार में ऐसे जितेन्द्रिय तपस्वी आदर्श सदाचारी कहाँ मिलेंगे ? रानी की अनेक प्रकार की कुचेष्टाओं से भी ब्रह्मचारी सुदर्शन का मन विचलित नहीं हुआ। इस कष्ट को दूर करने के लिए सेठ जिनेन्द्र भगवान का स्मरण करके प्रार्थना करने लगे। उन्होंने मन में निश्चय कर लिया कि यदि मेरे ये कलंक दूर हो तो संसार का परित्याग करके दीक्षा ले लूँगा, अब इस संसार के झमेले में नहीं पढूँगा। “धन्य हैं वे, जो संसार में भी ऐसे आपतित संकट को दूर से ही त्याग देते हैं तथा धैर्यपूर्वक अपने शीलधर्म का पालन मौत की कीमत पर भी करते हैं; क्योंकि वे जानते हैं कि मौत तो एक भव की क्षति करेगी, किन्तु कुशील भव-भव की क्षति करने वाला है। और फिर मौत भी अपने आयु कर्म के क्षय से आती है, अपयश भी अपने अयशस्कीर्ति कर्म के उदयानुसार

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