Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 21
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/१९ शालिसिक्य मच्छ के भावों का फल (स्वयंभू श्री आदिनाथ भगवान को नमस्कार करके यह कथा लिखते हैं - जिसे पढ़कर आपको ज्ञात होगा कि यह जीव पापक्रिया किये बिना भी कितना घोरपाप का बंध कर लेता है; क्योंकि वास्तव में परद्रव्य का तो कोई कुछ कर ही नहीं सकता । अत: क्रिया फलदायी नहीं होती, फल तो परिणामों का तथा अभिप्राय में निरन्तर वस रही वासना का लगता है ।) अन्तिम स्वयंभूरमण समुद्र में एक विशाल महामच्छ होता है, जिसकी लम्बाई एक हजार योजन, चौड़ाई पाँच सौ योजन और ऊँचाई ढाई सौ योजन की होती है। उस महामच्छ के कान में एक शालिसिक्य मच्छ रहता है, जो महामच्छ के कान का मैल खाता है । जब महामच्छ सैकड़ों जल जन्तुओं को खाकर गहरी नींद में सो रहा होता है, तब दूसरे जीव-जन्तु उसके खुले मुँह में आयाजाया करते हैं । उस समय शालिसिक्य मच्छ ( चावल जैसा मच्छ) विचार करता है कि यह महामच्छ कैसा मूर्ख है कि जो अपने मुँह में आते जलजन्तुओं को व्यर्थ छोड़ देता है। यदि मुझे ऐसा मौका मिलता, तो मैं एक भी जीव को नहीं छोड़ता, सबको खा जाता । पापी जीव ऐसी खोटी भावना से दुर्गति में दुःख भोगता है । शालिसिक्य मच्छ की भी ऐसी ही गति हुई । वह मरकर सातवें नरक गया, कारण कि मन के भाव ही पुण्य और पाप का कारण होते हैं । इस कारण सज्जन जैन शास्त्रों का अभ्यास करके अपने को पवित्र बनावें और कभी भी खोटी भावना को हृदय में स्थान नहीं दें । शास्त्रों के बिना अच्छे-बुरे भावों का ज्ञान नहीं होता, इसलिये शास्त्र - अभ्यास को पवित्रता का मूल कारण कहा है। हे भव्य ! जिनवाणी मिथ्या अंधकार को नष्ट करने के लिये प्रकाश : का काम करती है; अतः प्रतिदिन जिनवाणी के अध्ययन मनन - अवगाहन में अपने उपयोग का उपयोग करना । आराधना कथाकोष भाग - ३ से साभार

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