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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/२५ ध्यान का अभ्यास किया तथा धर्मध्यान किया। अन्त में उन्होंने समाधि धारण करके मन को शुद्ध किया, समस्त आराधनाओं का आराधन किया। अपने हृदय में जिनेन्द्रदेव को विराजमान किया तथा अत्यन्त जागृति पूर्वक प्राणों का त्याग किया। इससे सेठ का जीव उस चारित्ररूपी धर्म के प्रभाव से ईशान स्वर्ग में महाऋद्धि को धारण करने वाला देव हुआ। उसकी आयु एक सागर की थी। वहाँ वह देवांगनाओं के साथ सुख भोगता और अनेक प्रकार की क्रीड़ा करता था। वह देव स्वर्गलोक तथा मनुष्यलोक की जिनप्रतिमाओं की महाविभूति सहित पूजा करता था।
अपनी आयु पूर्ण कर वह देव इसी जम्बूद्वीप के सुकच्छ देश में शिखरों पर देवियों के भवनों से शोभायमान विजयार्द्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी के कंचनतिलक नगर के महेन्द्रविक्रम नामक विद्याधर की रानी अनलवेगा के यहाँ अजितसेन नाम का पुत्र हुआ।
यहाँ राजपुत्र नलिनकेतु जिसने सेठ पुत्र सुदत्त की भार्या प्रीतिकरा का अपहरण किया था, को भी उल्कापात देखकर वैराग्य होने से आत्मज्ञान प्राप्त हुआ। उसने पहले जो दुश्चरित्र पालन किया था उसकी वह निन्दा करने लगा तथा हृदय में परस्त्री छोड़ने का संकल्प करके अपने पाप का प्रायश्चित करने लगा।
वह विचार करने लगा कि अरे रे, मैं बहुत पापी हूँ, परस्त्री भोगी हूँ, लंपटी हूँ, अधम हूँ, विषयांध हूँ तथा सैकड़ों अन्याय करने वाला हूँ। स्त्रियों के शरीर में अच्छा क्या है? वह तो चमड़ी, हड्डियों और आंतड़ियों का समूह है। संसार में जितने अमनोज्ञ पदार्थ हैं, शरीर तो उन सबका आधार तथा विष्ठा आदि दुर्गन्धमय चीजों का घर है। यह शरीर सप्त धातुओं से निर्मित है, स्त्रियों का शरीर गोरी चमड़ी से ढंका हुआ है एवं वस्त्राभूषण युक्त होने से सुशोभित लगता है। संसार में ऐसा कौन ज्ञानी पुरुष है जो उसका सेवन करेगा ? ऐसी स्त्री के प्रति अनुराग तो नरकरूपी घर का दरवाजा है तथा स्वर्ग-मोक्षरूपी घर के लिये अर्गला (व्यवधान) समान है। समस्त पापों का उत्पादक है। चंचल हृदय वाली स्त्री धर्म रत्नों के खजाने को चोर