Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 56
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/५४ पापोदयानुसार कैसा कष्ट आता है? और वे भी उसे पापोदय का कार्य जानकर सहजता से भोग लेते हैं। २. नागरिक – हाँ देखो न, कौन जानता था कि कभी वे शूली पर भी चढ़ेंगे। हाय, इस दुनिया में जो न हो सो सब थोड़ा है। १. नागरिक – इसलिए तो कहते हैं भैया कि सत्कर्म करो। न जाने कब प्राण निकल जायें। फिर हाथ कुछ नहीं आता। २. नागरिक - और क्या, मरने पर भले-बुरे का लेखा-जोखा होता है। यही साथ जाता है। इस शरीर की इतनी-इतनी सेवा सुश्रूषा करो, पर अन्त में यह छलिया कभी साथ नहीं देता। १. नागरिक - दीवानजी कितने निर्ममत्व हैं कि देश-रक्षा के लिए अपनी पत्नी पुत्रादि से ममता त्याग दी और शरीर का भी मोह छोड़ आत्मसमर्पण कर दिया। २. नागरिक - खून करे कोई, फाँसी लगे किसी को। दीवानजी जैसे अहिंसक कहीं हत्या कर सकते हैं ? उन्होंने तो पराया दोष अपने सिर ले लिया है। १. नागरिक – दीवानजी जैन हैं। भैया ! जैन बहुत उत्कृष्ट होते हैं। सुना है जैनियों में मरना भी एक कला है। २. नागरिक - (आश्चर्य से) हैं, मरना और कला ? ये कैसी कला । है भैया ? तनिक हमें भी बताओ। १. नागरिक - भाई ! कहते हैं कि जैनयोगी ऐच्छिक मरण कर सकते हैं। वे मृत्यु से घबराते नहीं वरन् उसका आह्वान करते हैं। चाहे तो गृहस्थ भी इसी प्रकार मरण कर सकता है। यह अपने अन्तिम समय में वस्त्राभूषण स्त्री-पुत्र आदि यहाँ तक कि तन से भी ममता त्याग देते हैं। वे क्रमशः आहार, जल, औषधि का त्याग कर सानन्द मृत्यु का वरण करते हैं। २. नागरिक – क्या उन्हें मृत्यु से डर नहीं लगता ? १. नागरिक - भला डर लगता तो उपयुक्त क्रिया ही क्यों करते? उनका

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