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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/७५
नीच से निर्ग्रन्थ
स्वरूपसिंह बचपने से गुजर रहा था, तभी उसके माता-पिता गुजर गये। वे गरीब थे। स्वरूपसिंह के कोई भाई-बहिन न था। वह जाति से क्षत्रिय था परन्तु वह परिस्थिति के मारे एक नीच हष्ट-पुष्ट भिखारी बन गया था। उसका क्षत्रियत्व न जाने कहाँ विलुप्त हो गया था। सचमुच उसे खबर ही नहीं थी कि मैं क्षत्रिय हूँ। उसे माँगकर पेट भरने में आनन्द आने लगा था। रोजाना प्रात: होती कि भीख मांगने निकल जाता। घर-घर जाकर भीख माँगते हुए कहता – “अरे बाई ! रोटी दे दो, मैं भूखा हूँ, आपका भला होगा। अरे माँ ! थोड़ा आटा ही दे दो। अरे सेठजी ! एक-दो पैसे दे दो न, आपका भला होगा । जब उसे कोई पेट भर भोजन करा देता तो उसे अनेक शुभकामनाएँ दे देता। वह उसे बड़ा परोपकारी मानता।"
वह इतना नीच था कि जब भी किसी से माँगता तो वह उससे लेकर ही रहता था। उसे अनेक लोगों की खरी-खोटी भी सुननी पड़ती थी। हष्टपुष्ट युवा होने से लोग उससे कहते – “कमाकर खाओ, भीख क्यों माँगते हो ?” उसे भीख माँगते-माँगते कितने वर्ष हो गए थे, वह लोगों की अनेक लताडे खाता रहता था, पर भीख माँगना न छोड़ता। ___ एक बार वह किसी दूसरे नगर में एक सज्जन सेठ के यहाँ भीख माँगने पहुँच गया। वहाँ कहने लगा – ‘अरे ! कोई भूखे का पेट भरा दो, बड़ा भला होगा। सेठजी ने उसकी आवाज सुनी और बाहर आये। उन्होंने देखा कि हष्ट-पुष्ट युवक होकर भिखारी बनकर फिर रहा है। क्या यह भिखारीपन नहीं छोड़ सकता है ? ऐसा विचारकर सेठजी ने उससे कहा – 'मैं तुम्हें खाना नहीं खिला सकता हूँ। तुम कमाकर खाओ, कुछ काम करो, उससे जो धन प्राप्त हो उससे अपना पेट भरो।'
भिखारी ने कहा – 'बाबूजी ! काम कहाँ मिलता है ? सेठजी ने कहा – तुझे मैं काम देता हूँ, तू आज से ही यहाँ रह, काम