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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/७७ सेठजी ने कहा – मैं कोई परोपकारी रहीं। तुमने जो मेहनत की, उसी का यह मीठा फल है। वह सेठजी के यहाँ तीन वर्ष तक रहा। वह व्यापार के सारे गूढ़ रहस्य समझ गया। उसने अपनी अच्छी साख बना ली थी। उसने नया व्यापार प्रारंभ करने का मानस बनाया। यह बात उसने सेठजी से कही। सेठजी ने बिना किसी बहानेबाजी के उसका व्यापार प्रारंभ करा दिया। अब वह भिखारी, नौकर न रहा था, अब सेठ बन गया था।
एक दिन वह जंगल में भ्रमण करने गया। वहाँ उसने परमशांत मुद्रा के धारी, रत्नत्रय के धनी दिगम्बर मुनिराज को देखा। वे एक चट्टान पर आत्मध्यान कर रहे थे। उन्हें कुछ दूर से ही देखा और विचार आया - 'इसप्रकार यह कौन बैठा है ? न वस्त्र है, न शस्त्र है। मात्र कमण्डल-पीछी ही दिख रही है। मुद्रा भी कितनी परमशांत व सौम्य है। सचमुच यह कोई महान साधु होना चाहिए।' ऐसा विचार कर वह उनके निकट गया और उन्हें नमन कर बैठ गया। मुनिराज आत्मध्यान में लीन थे। वह उनकी परमशांत मुद्रा को निहारता रहा। वह मन में सोचने लगा – ‘इनकी यह अवस्था कब छूटे और मैं पूछू कि आपने ऐसी अवस्था क्यों धारणकर रखी है तथा ऐसी कठिन तपस्या क्यों कर रहे हो ?'
मुनिराज का ध्यान टूटा और उन्होंने जैसे ही आँख खोली, उसने दोनों हाथ जोड़कर मुनिराज को प्रणाम किया। मुनिराज ने उसे 'धर्मवृद्धिऽस्तु' कहा। फिर पूछा – तुम कौन हो ? ।
उसने उत्तर दिया - मैं भिखारी था, फिर नौकर बना और अब मैं सेठ
___मुनिराज ने कहा - हे भाई ! तुम न भिखारी थे, न नौकर थे और न सेठ हो। तुम इन सबसे भिन्न वस्तु हो। --
उसने कहा – मैं इनसे भिन्न कौन सी वस्तु हूँ महाराज ? आप ही बताइए।