Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 54
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/५२ फतेहलाल - पिताजी, ..(बोल नहीं पाते) झूथाराम - (गला भर आया) फिर भी.. अमरचंद - (बात काटकर) बड़े भाई और फतेहलाल आप लोग मुझे मोह में खींचकर पथभ्रष्ट न करें। कर्त्तव्य मुझे प्रेरित कर रहा है। अब मैं संसार से निर्वृत्ति रूप होने का सतत् प्रयास करूंगा। यह जीवन की साधना कठोर परीक्षा है। बन सके तो यही कामना करना कि मैं सफल हो जाऊँ। चमनलालजी को आत्मग्लानि के अनुभव का अवसर न आने दें एवं इन्हें राज्य की ओर से जागीर बंधवा दें, ताकि इनकी जीविका का सुन्दर प्रबन्ध हो जाये। ऐसे निश्छल विशुद्ध अंतकरण वाले व्यक्ति विरले ही होते हैं। । झूथाराम - (अविरल अश्रुधारा पोंछते हुये) ऐसा ही हो जाएगा। कुछ और अभिलाषा हो तो कहो बंधु, हम लोग पूर्ण कर अपना अहोभाग्य समझेंगे। अमरचंद - इतना और ध्यान रखिएगा कि मैं अपने जीवन की ओर से पूर्ण सन्तुष्ट हूँ। प्रीवी कौंसिल तक राज्य का धन व्यर्थ न बहाना। मौहरा गया, चाहे जितना प्रिय हो। ऐसा समझ कर सामान्य प्रतिष्ठा भर के लिए खर्च करना, जिसमें लोकापवाद न हो। झूथाराम – सबके लिए सब कुछ कहा, परन्तु अपने लिए कुछ भी नहीं? अमरचंद – कहूँ क्या, ...हाँ, एक आकांक्षा और नितांत व्यक्तिगत और स्वार्थपूर्ण । जानता हूँ कुछ हो नहीं सकता। अन्तिम गति के क्षणों के भविष्य में मन में कुछ विकल्प शेष है। एजेन्ट चांडाल के ही हाथों फाँसी लगावेगा, किन्तु वह भी क्या करे? स्वामी की आज्ञा का पालन उस बेचारे का धर्म है। (फतेहलाल मूर्छित हो जाते हैं। चमनलाल बालकों की नाईं फूट-फूट कर रो पड़ते हैं। झूथारामजी भी आँसू बहाते हुये फतेहलाल को चेत में लाने के लिए कुर्ते से ही व्यजन करते हैं। चमनलाल भी सहयोग देते हैं। अमरचंद पुत्र के माथे पर बार-बार हाथ फेरते हैं।)

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