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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/६५
दृश्य द्वितीय समय : सूर्योदय काल, स्थान : इन्द्रगिरि (एक भव्य विशालकाय खड्गासन भगवान बाहुबली की प्रतिमा दिखाई दे रही है। आज मूर्ति का महामस्तकाभिषेकोत्सव होने जा रहा है। दोनों ओर लकड़ी का मचान बना रखा है। एक ओर उच्च काष्ठासन रखा है। सूर्योदय हो रहा है। कतिपय शिल्पी मंदिर के प्रांगण में चर्चा कर रहे हैं।
रामास्वामी – बंधुओ ! अत्यंत हर्ष है कि आज हमारी कठिन साधना फलवती हुई है।
कन्नप्पा – इतनी वृहदाकार सुरम्य मूर्ति अभी तक किसी शिल्पी ने कहीं नहीं गढ़ी।
रामास्वामी – तुम्हारा कथन यद्यपि सत्य है कन्नप्पा ! तथापि अभिमान उचित नहीं। यह ऐसा महाविष है, जो मानव को पतन के गर्त में ला पटकता है। ___ एलप्पा – यथार्थ है बंधु ! हमने जिस महा मानव की मूर्ति गढ़ी है, उसके जीवन से यही सीख मिली है कि देवों के द्वारा सेवनीय नवनिधि चौदह रत्न का अधिपति षट्खण्ड विजेता चक्रवर्ती सा असाधारण मानव साधारण मानव से एक अभिमान के कारण पराजित हो जाता है।
कृष्णास्वामी – अभिमानी को धूल चाटनी पड़ती है।
रामास्वामी - और स्वाभिमानी परंतु विनम्र बाहुबली की विलक्षणता देखो कि भौतिकवाद को पराजित करके भी ज्येष्ठ भ्राता का सम्मान अक्षुण्ण रख उन्हें भूमि पर पटकने की अपेक्षा कंधों पर बैठा लिया।
एलप्पा - एक क्षण पूर्व के बाहुबली दूसरे ही क्षण सावधान हो गए थे। उन्हें विश्व की समस्त आत्माओं की समानता की सुधि हो आई। तत्काल वे अपने मनोविकारों को परास्त कर निर्मल चित्त चैतन्य ज्योति जगा तीन लोक के ऊपर उठ गए।