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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/६४ चामुण्डराय – तंबू भी उखाड़ लो, हमें शीघ्र चलना है।
नेमिचन्द्र - (काललदेवी को उदास देख) काललदेवी ! उदास न हो, तुम्हारा वीर पुत्र सामर्थ्यवान है। वह भगवान बाहुबली की मूर्ति का निर्माण करा कर तुम्हें दर्शन-लाभ करा सकता है।
चामुण्डराय - (अत्यंत आनंदित हो) क्या यह संभव है ? आशीर्वाद दें गुरुदेव कि आपके वचनों को साकार कर सकूँ।
नेमिचन्द्र – हमारा आशीर्वाद है वत्स ! तुम अवश्य कृतकार्य होगे। काललदेवी – गुरुदेव ! क्या विशालकाय प्रतिमा बन सकेगी ?
अदृश्यस्वर – (गंभीर स्वर में) आप निश्चिंत रहें काललदेवी ! चामुण्डराय के द्वारा विशालकाय भव्य अद्वितीय मूर्ति का निर्माण होने वाला है, जो भारत में नहीं; अपितु समस्त विश्व में अनुपमेय होगी।
चामुण्डराय ! तुम शीघ्र श्रवणवेलगोला लौट कर चन्द्रगिरि की चोटी से इन्द्रगिरि पर शर संधान करो। बाण संस्पर्शित शिला वीतराग मूर्ति के उपयुक्त होगी। जाओ नि:शंक हो कार्य करो।
नेमिचन्द्र - लो शंका की संभावना समाप्त हो गई। कोई जिन शासन भक्त देव का स्वर है।
काललदेवी – इनकी भविष्यवाणी क्या सत्य होती है गुरुदेव !
नेमिचन्द्र - नि:संदेह, वे अवधिज्ञानी होते हैं। अब पवित्र कार्य करने में अनावश्यक विलम्ब अपेक्षणीय नहीं।
(सब खड़े हो जाते हैं, सेवक आता है।) सेवक - स्वामी ! तूंबू उखाड़ लिये गये हैं।
चामुण्डराय - दासप्पा ! शकटों का मुख अपने नगर की ओर मोड़ दिया जाये।
सेवक - (विस्मय हो) नगर की ओर ?
काललदेवी - (स्नेह पूर्वक) हाँ दासप्पा ! अब हम अपने नगर लौट रहे हैं। आगे नहीं जाएँगे।
(पटाक्षेप)