Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 64
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/६२ काललदेवी - पर मेरी प्रतिज्ञा है कि पोदनपुरम् में भरतेश्वर द्वारा निर्मित मूर्ति के दर्शन करूँगी। अन्यथा नीरस भोजन ग्रहण करूँगी। नेमिचन्द्र - आचार्य जिनसेन ने प्रतिमा का जो रोचक वर्णन प्रस्तुत किया था, वह सुनकर तो हमारा अंतर भी लालायित हो उठा था दर्शन करने का। काललदेवी - गुरुदेव ! ऐसा प्रतीत हुआ मानो उनके पावन दर्शन किये बिना यह मानव जीवन निस्सार है। ____ चामुण्डराय - और आचार्यश्री के बार-बार सावधान करने पर भी कि यह वन अगम्य है। हमने यात्रा का निश्चय कर ही लिया। उत्साह के साथ माँ श्री की प्रतिज्ञा ने मुझे विचार करने का अवकाश नहीं दिया। नेमिचन्द्र – हम भी दर्शनाभिलाषा से तुम्हारी यात्रा में सम्मिलित हो गये। आचार्यश्री ने यह भी कहा था कि उस मूर्ति को असंख्य कुक्कुट-सर्पो ने घेर लिया है। इसी कारण उसका नाम कुक्कुटेश्वर भी पड़ गया था। काललदेवी – कुक्कुट सर्प सर्यों की ही एक जाति होती होगी ? नेमिचन्द्र - नहीं, वे एक प्रकार के पक्षी होते हैं। उनका सिर सर्प जैसा होता है। परन्तु वे भयानक होते हैं। चामुण्डराय – ऐसे कोई विचित्र पक्षी अभी तक दृष्टि गोचर नहीं हुए और यात्रा भी अधूरी छोड़कर हम लौट रहे हैं। वैसे मेरा यह अभिमत है कि प्रत्येक कार्य प्रयत्न-साध्य है। दृढ़ संकल्प ही लक्ष्य सिद्धि का एकमेव मार्ग है। काललदेवी - मुझे भी पूर्ण विश्वास था कि हमारी यात्रा सफल होगी। परन्तु प्रबलतम दृढ़ता के पश्चात् भी निराशाजनक स्थिति उत्पन्न हो गई। नेमिचन्द्र – सांसारिक कार्यों में पग-पग पर बाधाएँ एवं प्रतिकूलताएँ हैं देवी कालल ! अनुकूलताओं की प्राप्ति हो जाना आश्चर्यजनक है। काललदेवी – पर ये तो धार्मिक कार्य है गुरुदेव ! नेमिचन्द्र – नहीं, जो आत्मा से भिन्न है, वह परद्रव्य है एवं परद्रव्य

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