Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 73
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १८/७१ ( एक स्वयं सेवक तुरन्त बालक को पहुँचा देता है | ) चामुण्डराय - ( स्नेह पूर्वक ) आयुष्मान् ! क्या नाम है तुम्हारा ? बालक - सुंदरम्, महोदय ! चामुण्डराय - अभिषेक करोगे सुंदरम् ? बालक – अवश्य, इसीलिए आया हूँ । माँ ने कलश में जल भी भर दिया है। चामुण्डराय तुम्हारी माँ नहीं आयी ? बालक नहीं, वे रुग्ण हैं । चामुण्डराय अच्छा, आओ अभिषेक करो । (चामुण्डराय स्वयं बालक को मचान पर चढ़ाते हैं । सुंदरम् ज्यों ही अभिषेक करता है, त्यों ही मूर्ति सम्पूर्णतः अभिषिक्त हो जाती है । जय भगवान बाहुबली, जय गुरुदेव, जय गोम्मटेश्वर का जयनाद गूंज उठता है।) काललदेवी - यह है सच्ची भक्ति ! घटघट ऐसी पवित्रता से अभिभूत हो जाए। धन्य है सुंदरम् ! धन्य है बेटे ! समवेत स्वर में जयघोष का स्वर गूंजता है । ( पटाक्षेप) श्रीमती रूपवती 'किरण' बात बहुत पुरानी है - एक शिष्य-गुरु थे। गुरुजी को कहीं से एक सोने की ईंट मिल गई। गुरुजी आगे चलते जाते और शिष्य पीछे-पीछे चलता। शिष्य अपने सिर पर वह सोने की ईंट रखे हुए था। जहाँ पर जंगल आवे गुरु, शिष्य से कहे कि जरा सम्भल कर चलना । चलने में पैरों की ज्यादा आवाज नहीं हो, पत्तियों पर पैर रख कर नहीं चलना । इसप्रकार वह गुरु डरता जाता था और शिष्य को परेशान करता जाता था। शिष्य ने सोचा कि इस विडम्बना हम कैसे छूटें। हमें एक तो यह ईंट लादनी पड़ती है। दूसरे गुरुजी.... । सो एक बार मार्ग में शिष्य ने धीरे से उस ईंट को कुएँ में पटक दिया। आगे फिर जंगल मिला तो गुरु कहता है बच्चा, धीरे-धीरे आना तो शिष्य बोला महाराज डर को तो मैंने कुएँ में पटक दिया। आप अब खूब आराम से चलो।... . तो डर किसमें है, मोह-ममता में...। सो भईया सब डर का कारण मोह-ममता ही है। यदि मोह न हो तो किसी प्रकार का डर नहीं है। शरीर का मोह है, हाय हम मर न जायें। तो यहाँ पर यह डर लग गया, क्योंकि उसके मरने का भय लग गया। यदि ऐसा विचार बने कि "मैं तो ज्ञान मात्र हूँ ।" मैं कभी असत् हो ही नहीं सकता, तो फिर अपने शुद्ध स्वरूप पर दृष्टि होने के कारण सारा डर खत्म हो गया, अमर हो गया । मरने वगैरह का फिर कुछ भी भय नहीं रहा। किसी कल्पनागत बाहरी चीजों में कभी भी सुख नहीं मिल सकता । - दृष्टांत प्रकाश से साभार

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