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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/६६ कन्नप्पा – मुझसे भूल हुई बन्धु ! क्षमा करें। हम शिल्पी कठोर पाषाण को मृदु बना उसे भगवान बना सकते हैं, तो हम मानव स्वयं भी भगवान बन सकते हैं।
रामास्वामी - अतिसुन्दर बन्धु ! कन्नप्पा स्वामी चामुण्डराय तो कहते हैं कि जैनधर्म तो सबमें भगवत्ता के दर्शन करता है। हमें वही तो प्रकट करना है, जो असंभव नहीं प्रयत्नसाध्य है।
___ एलप्पा - सच पूछो तो हमने मूर्ति का निर्माण ही कहाँ किया ? हमारी छैनी मूर्ति पर लगे व्यर्थ के पाषाण को तराशती रही है। अत: पाषाण में छुपी मूर्ति प्रकट हो गई।
रामास्वामी – पाषाण में वीतराग मूर्ति का निर्माण करते-करते भगवान बनने का सूत्र हाथ लग गया है। हमारा अंतर वीतरागता से पावन हो गया है।
(शनैः शनैः जन समुदाय जयघोष करता हुआ एकत्रित होने लगा है। चामुण्डराय एवं उनकी माँ काललदेवी आ गई हैं। आचार्य श्री नेमिचन्द्र भी आते हैं। उन्हें काष्ठासन पर आदर पूर्वक बैठाकर चामुण्डराय नमस्कार करते हैं। पुजारी भी अक्षत थाल लिए आ रहा है।)
काललदेवी – गुरुदेव ! मूर्ति के दर्शन कर आज हृदय गद्गद् हो रहा है। कल्पनातीत यह मूर्ति बनी है। मेरी इच्छा पूर्ण हुई है।
नेमिचन्द्र - आज का दिन धन्य है काललदेकी ! प्रतीत होता है जैसे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रत्नत्रय प्रतिमा में साकार हो आया है।
काललदेवी - बीजरूप रत्नत्रय की आप में भी अभिव्यक्ति हो चुकी है गुरुदेव! अब हम अज्ञानियों की बारी है।
नेमिचन्द्र – आत्मरुचि को जागृत करो काललदेवी ! तभी धर्म का प्रारंभ हो सकेगा।
चामुण्डराय – अवश्यमेव आचार्यश्री ! शेष जीवन आत्म-कल्याण में ही नि:शेष करूँगा।