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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/५३
झूथाराम – बेचारा फतेहलाल अभी बच्चा ही है। इतना बड़ा दुख सहन करना कठिन होगा ।
अमरचंद – बंधुवर, फतेहलाल के मार्गप्रदर्शक आप हैं । उसे कष्टसहिष्णु बना सत्कार्यों की ओर प्रेरित करें ।
झूथाराम - वह आपका प्रतिबिंब है भैया, आपने उसके संस्कार इतने सुसंस्कृत कर डाले हैं कि वह अपने योग्य वातावरण स्वयं निर्मित कर लेगा । कुशाग्रबुद्धि तथा कुशल है वह ।
अमरचंद - वत्स, उठो (फतेहलाल चेत में आते हैं) निर्भय समदृष्टि बनने का नित्य अभ्यास करना । स्व- पर कल्याण करने में ही जीवन की सार्थकता है।.. बड़े भाई, समय हो चुका। चमनलालजी आप लोग जायें । नहीं तो आपको निर्दयता पूर्वक हटा दिया जायेगा ।
एजेन्ट का साथी – मिलने का टाइम खत्म हो गया। बाहर निकलो ।
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अमरचंद · ( हाथ जोड़ कर ) उत्तम क्षमा ।
(तीनों व्यक्ति प्रत्युत्तर में हाथ जोड़ते हुए सजल नयन बाहर निकलते हैं। बार-बार मुड़-मुड़ कर अमरचंद को देखते जाते हैं। पैर ऐसे उठ रहे हैं मानों मन-मन भर के पत्थर बाँध दिये हों। धीरे-धीरे ओझल हो जाते हैं। पहरेदार तुरन्त ताला लगा देता है। अमरचंदजी ध्यानस्थ हो जाते हैं।) (दो नागरिक मार्ग में वार्तालाप कर रहे हैं ।)
१. नागरिक - जब से सुना है कि छोटे दीवानजी को कल फाँसी होगी, चैन नहीं ।
२. नागरिक - हाँ भाई ! उस बुरी घड़ी की सुधि आते ही कलेजा मुँह को आता है । कल जयपुर राज्य के दुर्भाग्य का बड़ा क्रूर दिवस होगा, जब कि बिना तिलक का राजा संसार से विदा ले लेगा ।
१. नागरिक यह सोचते ही ऐसा लगता है मानों संसार का रक्षक कहीं सौ गया है अथवा कोई है ही नहीं । ऐसे धर्मात्माओं पर भी पूर्व
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