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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १८/४९
(चमनलाल बीच-बीच में पड़े-पड़े अपना सिर बड़ी तेजी से हिलाते हैं। ऐसा लगता है मानों वे पश्चाताप की अग्नि में जलकर वहीं भस्म हो जायेंगे। पर यह संभव कहाँ ? सिसकियों के बीच कभी-कभी दीवानजी शब्द सुनाई पड़ जाता है ।)
अमरचंद - कुछ कहिये तो चमनलालजी, क्या बात है ? झूथाराम – इन्होंने राजभक्ति के उद्वेग में आकर कप्तान स्मिथ की हत्या
की है।
अमरचंद अच्छा, निःसन्देह राज्यप्रेम श्लाघनीय है ।
तुम्हारा
झूथाराम अब आप अपना स्थान चमनलाल को देकर हम सबको अनुग्रहीत करें।
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अमरचंद - (सिर हिलाते हुये गम्भीरता से) यह सर्वथा असम्भव है। फतेहलाल - (संयत हो) क्यों पिताजी, इसमें कौन-सी बाधा है? ये स्वयं अपना अपराध स्वीकार कर रहे हैं
अमरचंद – पुत्र, तुम अभी राजनीति क्या समझो ?
झूथाराम - हाँ भाई यही बात है । चमनलाल ने बिना किसी दबाव के आत्मसमर्पण किया है।
अमरचंद – भैया, आप जैसे कुशल राजनीतिज्ञ के वचन मुझे नितांत आश्चर्य में डाल रहे हैं। कदाचित् मोहवश ही आप ऐसा कह सके हैं। झूथाराम – पर यह बात उचित है क्या कि निरपराध फाँसी पर झूले ?
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अमरचंद - सुनिये बड़े भाई, जब मैंने एजेंट के समक्ष अपराध की स्वीकारोक्ति की थी, तब मेरे मन में किसी प्रकार की व्यथा नहीं थी । किसी के प्रति द्वेष या घृणा नहीं थी । गजदंत बाहर निकलने के पश्चात् पुन मुँह में प्रविष्ट नहीं होते। बंधु, जो हो चुका सो हो चुका। अब कोई विकल्प शेष नहीं ।
झूथाराम – परन्तु न्याय यह नहीं कहता ।